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उत्तरकाण्ड

अपनाया। बोल का अटल, बाँह का अचल, दीन का बन्धु, दुबले (दरिद्री) को देनेवाला, हे दयानिधान! तुम सा दूसरा कौन है?

[ १५९ ]

कीबे को बिसोक लोक लोकपालहू तें सब,
कहूँ कोऊ भो न चरवाहो कपि भालु को।
पवि को पहार कियो ख्याल ही कृपालु राम,
बापुरो बिभीषन घरौंधा हुतो बाल को॥
नाम ओट लेत ही निखोट होत खोटे खल,
चोट बिनु मोट पाइ भयो न निहाल को?।
तुलसी की बार बड़ी* ढील होति, सीलसिन्धु!
बिगरी सुधारिबे† को दूसरो दयालु को?॥

अर्थ―सब संसार को शोक-रहित करने को लोकपालों में से भी कोई बन्दरों भालुओं का चरवाहा न हुआ अथवा लोकपालों से लोक को शोकरहित करने के लिए कोई बंदर भालुओं को बचानेवाला कहीं नहीं हुआ। खयाल करते ही अर्थात् स्मरण मात्र से रामचन्द्र ने पवि (वज्र) का पहाड़ उस बेचारे विभीषण को किया जो बालू का सा घरौधा था यानी क्षण में उस बालू की दीवार की तरह नष्ट हो जाता जो लड़के खेलने के लिए बनाते हैं और बिगाड़ डालते हैं। राम की आड़ लेते ही खोटे खल भी निखोटे (बिना ऐब) मनुष्य हो जाते हैं। ऐसा कौन है जो बिना चोट (डर वा श्रम) के नाम लेते ही मोट (बहुत सा धन) पाकर निहाल न हो? तुलसीदास की बेर बड़ी ढील हो रही है, हे शील के समुद्र! बिगड़ी की सुधारनेवाला तुम्हारे बिना कौन है?

[ १६० ]

नाम लिये पूत को पुनीत कियो पातकीस,
आरति निवारी प्रभु पाहि कहे पील की।
छलिन की छोंड़ी सी निगोड़ी छोटी जाति पाँति,
कीन्हीं लीन आपु में सुनारी भोंड़े भील ‡की॥



*पाठान्तर―बलि।
†पाठान्तर―सम्हारिने को।
‡पाठान्तर―भाल की।