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उत्तरकाण्ड

नरदेह कहा, करि देखु विचार, बिगारु* गँवार न काजहि रे।
जनि डोलहि लोलुप कूकुर ज्यों, तुलसी भजु कोसलराजहि रे॥

अर्थ―पुत्र, स्त्री, महल, सखा, कुटुम्ब को कुसमाज जानकर, सबकी प्रीति छोड़कर, समता (एकाग्रता) को सज (ग्रहण कर)। संत-सभा में क्यों नहीं विराजता? मनुष्य देह क्या है, विचारकर देख। हे गँवार! अपने काम को मत बिगाड़, कुत्ते के समान लालची मत बन। तुलसीदास कहते हैं कि कोशलराज (राम) को भज।

[ १७३ ]

विषया परनारि निसा-तरुनाई, सु पाइ पर्यो अनुरागहि रे।
जम के पहरू दुख रोग बियोग, बिलोकत हुन बिरागहि रे॥
ममता बस तैँ सब भूलि गयो, भयो भोर, महा भय भागहि रे।
जरठाई दिसा, रविकाल उग्यो, अजहूँ जड़ जीव न जागहि रे॥

अर्थ―विषय-रूपी परनारि और तरुणाई-रूपी रात को पाकर मोह में पड़ गया है; यमराज के दूत, जो रोग, दुःख और वियोग हैं, उनको देखकर भी तुझे वैराग्य उत्पन्न नहीं हुआ। मोह-वश सब भूल गया, सबेरा होते अब डर से भागने लगा; अथवा भारी भय आ रहा है अर्थात् मौत पा रही है, अब भाग। वृद्धावस्था-रूपी दिशा में काल-रूपी सूर्य्य उदय हुआ, अब भी हे जड़ जीव! तु नहीं जागता है।

[ १७४ ]

जनम्यो जेहि जोनि अनेक क्रिया सुख लागि करी, न परे बरनी।
जननी जनकादि हितू भये भूरि, बहोरि† भई उर की जरनी॥
तुलसी अब राम को दास कहाइ, हिये धरु चातक की‡ धरनी।
करि हंस को वेष बड़ो सब सों§, तजि देबक बायस की करनी॥



*पाठान्तर―गँवार विगार न।
†पाठान्तर―बहार।
‡पाठान्तर―सी।
§पाठान्तर―तें।