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कवितावली
[१६४]

जहाँ जम जातना घोर नदी, भट कोटि जलच्चर दंत टेवैया।
जहँ धार भयंकर वार न पार, न बोहित नाव न मीत* खेवैया॥
तुलसी जहँ मातु पिता न सखा, नहिं कोउ कहूँ अबलंब देवैया।
तहाँ बिनु कारन राम कृपालु बिसाल भुजा गहि काढ़ि लेवैया॥

अर्थ—जहाँ यम की यातना है, घोर वैतरणी नदी है और करोड़ों योद्धा (बलवान्) जलचर दाँत तेज़ करते हैं, जिसकी भयङ्कर धार का कोई पार नहीं है, न कोई नाव है, न उसका खेनेवाला है, हे तुलसी! जहाँ न माता, न पिता, न सखा, न और कोई सहारा देनेवाला है, वहाँ बिना कारण ही कृपालु राम बड़ो बाहों से हाथ पकड़कर निकालनेवाले हैं।

[१६५]


जहाँ हित, स्वामि, न संग सखा,
बनिता, सुत, बंधु न, बाप, न मैया।
काय गिरा मन के जन के,
अपराध सबै छल छाँड़ि छमैया॥
तुलसी तेहि काल कृपालु बिना,
दुजो कौन है दारुन दुःख दमैया।
जहाँ सब संकट दुर्घट सोच,
तहाँ मेरो साहब राखै रमैया॥

अर्थ—जहाँ न हितू है, न स्वामी, न सङ्गी, न सखा, न बन्धु, न पिता, न माता, वहाँ शरीर-वचन-मन के अपराधों को, छल छोड़कर, माफ़ करनेवाला, दारुण दुःख का नाश करनेवाला, हे तुलसी! कृपालु रामचन्द्र के सिवा दूसरा कौन है? जहाँ सब कठिन सङ्कट और शोध आते हैं वहाँ मेरा साहब, राम, ही रखने (बचाने) वाला है।

[१६६]

तापस को बरदायक देव, सबै पुनि बैर बढ़ावत बाढ़े।
थोरेहि कोप, कृपा पुनि थोरेहि, बैठि के जोरत तोरत ठाढ़े॥


* पाठान्तर—नीक।