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कवितावली

घनाक्षरी

[ २३८ ]

किसबी, किसान कुल, बनिक, भिखारी, भाँट,
चाकर, चपल, नट, चोर, चार, चेटकी।
पेट को पढ़त, गुन गढ़त, चढ़त गिरि,
अटत गहन-गन अहन अखेट की॥
ऊँचे नीचे करम धरम अधरम करि,
पेट ही को पचत बेंचत बेटा बेटकी।
तुलसी बुझाइ एक राम घनस्याम ही तें,
आगि बड़बागि तें बड़ी है आगि पेट की॥

अर्थ―मज़दूर, किसान, बनिये, भिखारी, भाट, नौकर, नट, चोर, चार (हलकारे) बाज़ीगर, पेट ही के लिए लोग विद्या सीखते हैं और गुणों को गढ़ते हैं (पैदा करते हैं), पहाड़ों पर चढ़ते हैं, घने जंगलों में शिकारी शिकार की तलाश में फिरते हैं, भले बुरे कर्म, धर्म और अधर्म करते हैं और लड़के-लड़कियों को बेचते हैं। यह सब पेट के लिए करते हैं। तुलसीदास कहते हैं कि एक घनश्याम रामचन्द्रजी से बुझती है, पेट की आग तो बड़वानल से भी बड़ी है।

[ २३९ ]

खेती न किसान को, भिखारी को न भीख,
बलि, बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी।
जीविका-विहीन लोग सीद्यमान* सोच बस,
कहैं एक एकन सोँ “कहाँ जाई, का करी”?॥
बेद हूँ पुरान कही, लोकहू बिलाकियत,
साँकरे सबै† पै राम रावरे कृपा करी।



*पाठान्तर―विद्यमान।
†पाठान्तर―समै।