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कवितावली

पछताओगे; अयक्षा चाहे जितना पछताऊँ परन्तु मैं तुमसे डरूँगा नहीं। जैसे ब्राह्मण को गरुड़ ने जगल हिया या वैसे मैं भी तुम्हारे पेट में कभी न ठहरूँगा।

[ २४५ ]

राज मराल के बालक पेलिकै, पालत लालत खूसर को।
सुचि सुन्दर सालि सकेलि सुवारि कै बीज बटोरत ऊसर को॥
गुन ज्ञान-गुमान भभेरि बड़ी, कलपद्रुम काटत मूसर को।
कलिकाल बिचार अचार हरो, नहि सूझै कछू धमधूसर को॥

अर्थ―राजहंस के बच्चे को हटाकर खूसट को पालते हैं, अच्छे पवित्र चावल को छोड़कर असर का बीज बटोरते हैं, गुण और ज्ञान का बड़ा भड़दल है अथवा ज्ञान और गुण का बड़ा अहंकार है कि मूसर के लिए कल्पद्रुम को काटते हैं। कलियुग में आचार- विचार सब नष्ट हो गया, बड़ा कौन है यह दिखाई नहीं देता अथवा बेवकुफ़ को कुछ नहीं दिखाई देवा।

[ २४६ ]

कीबे कहा, पढ़िबे को कहा फल? बूझि न बेद को भेद बिचारै।
स्वारथ को परमारथ को कलिकामद राम को नाम बिसारै॥
बाद-बिबाद बिषाद बड़ाइ कै छाती पराई औ आपनी जारै।
चारिह को छहु को नव को दश पाठ को पाठ कुकाठ ज्यों फारै॥

अर्थ―क्या किया जावे, पढ़ने ही का क्या फल है, यदि वेद का भेद समझबूझकर न विचारा और स्वार्थ तथा परमार्थ दोनों देने के लिए कामधेनु समान रामनाम को यदि छोड़ दिया, वाद-विवाद और द्वेष बढ़ाकर अपनी और पराई छाती को जलाया, चारों वेद, छहों शास्त्र, नव व्याकरण और अठारहों पुराण का पाठ सूखे काठ की तरह फाड़ा अर्थात् बेकार इधर-उधर खींच तानकर कुछ न कुछ मतलब निकाला।

[ २४७ ]

आगम बेद पुरान बखानत, मारग कोटिन जाहि न जाने।
जे मुनि ते पुनि आपहि आपुको ईस कहावत सिद्ध सयाने॥