साधु कै असाधु, के भला कै पोच, सोच कहा,
काहूके द्वार परौं जो हैं। सा हैंराम को ॥
अर्थ--मेरी कोई जाति-पाँति नहीं है, और न मैं किसी की जाति-पाँति चाहता
हूँ: न कोई मेरे काम का है, न मैं किसी के काम का; लोक-परलोक सब रामचन्द्र के
हाथ है। तुलसी को एक राम नाम ही का भारी भरोसा है। लोग बड़े बेशऊर हैं
जो इस कथा को नहीं जानते हैं कि साह ( मालिक ) का गीत ही गुलाम का गोत
होता है। साधु हूँ तो, असाधु हूँ तो, भला हूँ या बुरा, किसी को क्या मतलब ? क्या
मैं किसी के दरवाजे पर पड़ा हूँ ? जो हूँ, राम का हूँ।
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कोऊ कहै करत कुसाज दगाबाज बड़ो,
कोऊ कहै राम को गुलाम खरो खूब है।
साधु जानै महासाधु, खल जाने महाखल,
बानी झूठी साँची कोटि उठत हबूब है ॥
चाहत न काहू सों, न कहत काहू की कछु,
सबकी सहत उर अंतर न ऊब है।
तुलसी को भलो पोच हाथ रघुनाथ ही के,
राम की भगति भूमि, मेरी मति दूब है ॥
अर्थ-बाज़ लोग कहते हैं कि मैं बड़ा दगाबाज़ हूँ, कुसाज अर्थात् धोखा देने को बुरी
सामग्रो इकट्ठा करता हूँ, और बाज़ लोग कहते हैं कि खूब रामचन्द्र का भक्त हूँ; मुझे
साधु भला जानते हैं, खल महाखल, करोड़ों तरह की झूठी-सच्ची बातें मेरे लिए पानी
फैसे बुदबुदे की सरह उठती हैं (कही जाती हैं)। न मैं किसी से कुछ चाहता
हूँ, और न किसी से कुछ कहता हूँ, सब की सहता हूँ। मेरे मन में कुछ अब नहीं है
यानी सहते-सहते थका नहीं हूँ। तुलसी का भला और बुरा रघुनाथ के हाथ है,
राम की भक्ति रूपी दूब मेरी देह रूपी भूमि में सब जगह विद्यमान है।
- पाठान्तर-सब