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उत्तरकाण्ड


प्रेम है, वे सबसे प्रेम करते हैं, सबका आदर करते हैं। तुलसी की, हे महादेव, आप ही के सँभालने से बनेगी। मेरे मा-बाप गुरु, शंकर-भवानी ही हैं, अर्थात् आपका समाज तो टेढ़ा है पाप स्वयं मेनी बनादेंगे तेह बनेगी।

[३११]


गौरीनाथ भोलानाथ भवत भवानीनाथ,
बिस्वनाथ-पुर फिरी आन कलिकाल की।
संकर से नर, गिरिजा सी नारी कासीबासी,
बेद कही, सही ससि-सेखर कृपाल की॥
छमुख गनेस तेँ महेस के पियारे लोग,
विकल बिलोकियत, नगरी विहाल की।
पुरी-सुरबेलि केलि काटत किरात कलि,
निठुर निहारिए उघारि डीठि भाल की॥

अर्थ—गौरीनाथ! भोलानाथ! हे भवानीनाथ! आपकी पुरी काशी में कलिकाल को आनि है अर्थात् यहाँ नहीं सता सकता है अथवा काशी में कलि की आन (दुहाई) फिरी है। यहाँ शंकर से नर और गिरिजा सी नारी सदा वास करते हैं, यह बात वेद में कही गई है और उस पर कृपालु महादेव ने सही (दस्तखत) कर दिया है, यहाँ के लेाग महेश को छः मुख (कार्तिकेय) और गणेश से भी प्यारे हैं, पर अब नगरी बेहाल की (विकल) दिखाई पड़ती है। उस सुरबेलि-समान पुरी को निठुर कलिरूपी किरात काटता है, अतः भाल की दीठि (तीसरा नेत्र) उधारकर देखिए अर्थात् कलि को भस्म कीजिए।

[३१२]



ठाकुर महेस, ठकुराइन उमा सी जहाँ,
लोक बेदहू बिदित महिमा ठहर की।
भट रुद्रगन, भूत गनपति सेनापति,
कलिकाल की कुचालि काह तौ न हरकी॥