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कवितावली

भावार्थ—हें राम, मै स्वय अपने को अच्छी तरह जानता हूँ कि आपका ही बनाया हुआ हूँ। तोते की तरह नाम रटता हूँ और सारा ससार यही कहता है कि इसको रामचंद्रजी ने ही पढ़ाया है (अर्थात् आप ही की कृश से मुझमें भक्ति का संचार हुआ हैं)। पर मै केवल तोते की तरह राम राम रटता हूँ (भक्ति से नही), इसी बात का मेरे मन में दुःख है। क्योंकि वेद कहते हैं कि जिस आदमी को रामजी बढाते हैं वह कभी नहीं घटता (अर्थात् जिस पर रामजी की कृपा होती है उसकी कभी अवनति नहीं होती। मै तो सदा एक साधारण पुरुष था, आप ही के नाम के प्रताप से पूज्य हुआ हूँ।)

मूल—
(मनहरण कवित्त)

छार ते सॅवारिकै पहार हू ते भारो कियो,
गारो भयो पंच में पुनीत पच्छ पाइकै।
हों तौ जैसो तब तैसो अब, अधमाई कै कै,
पेट भरौं राम रावरोई गुन गाइकै।
आपने निवाजे की पै कीजै लाज, महाराज,
मेरी ओर फेरिक न बैठिए रिसाइकै।
पालिकै कृपालु ब्याल-बाल को न मारिए,
औ काटिए न, नाथ! बिषहू को रुख लाइकै॥६१॥

शब्दार्थ—छार ते सॅवारिकै॥ छार अर्थात् धूल की तरह निकम्मे को सँभालकर। गारो= गौरव, बड़ाई। पच में= आदमियों में। अधमाई कै कै= नीचता करके। मेरी ओर हेरिकै= मेरी करनी की ओर दृष्ठि करके। रिसाइकै= क्रोध करके। ब्याल-बाल= सॉप का बच्चा। रूख= (वृक्ष=प्रा० रुक्ख) पेड़।

भावार्थ—तुलसीदास कहते हैं कि हे रामचंद्रजी, आपने मुझ धूलि की तरह निकम्मे की रक्षा करके पहाड़ से भी भारी बना दिया है। आपके तुल्य पवित्र का पक्ष पाकर मैं लोगों मे पूज्य हो गया। मैं तो जैसा पहले था वैसा ही अब भी है, और आपके गुण गा-गाकर नीचता से अपना पेट पालता हुँ। हे महाराज, मेरी करनी की ओर देखकर मुझसे अप्रसन्न होकर मत बैठिए। जिसको आपने कृपा कर बड़ाई दी उसकी लाज तो रखिए। क्योंकि