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कवितावली


पाँच की प्रतीति न, भरोसो मोहिं आपनोई,
तुम अपनायो हौं तबै हीं परि जानिहौं।
गढ़ि गुढ़ि, छोलि छालि कुंद की सी भाई बातैं,
जैसी मुख कहौ तैसी जीय जब आनिहौं॥६३॥

शब्दार्थ—कानि= मर्यादा, लाज। गुमान= गर्व। पाँच= पच देवता (विष्णु, महेश, गणेश, सूर्य और देवी)। परि= निश्चय रूप से। गढ़ि गुढि= बना बनाकर। छोलि छालि= काट कूट कर। कुंंद की सी भाई= खराद पर चढाई हुई। जीय= मन। कुद= खराद का औजार।

भावार्थ—हे रामचद्रजी, मैं आप ही का दास कहलाता हूँ और आप ही के गुण गाता हूँ, और आप ही की लाज से मै दो रोटी पा जाता हूँ। मैंने आपके अतिरिक्त किसी दूसरे को न माना, न मानता हूँ और न मानूँँगा। इस बात को ससार जानता है और मेरे मन में भी बड़ा गर्व है। न तो मुझे पंच देवताओं का ही विश्वास है और न अपने कर्तव्य का ही भरोसा है। आपने मुझे छपना लिया है इस बात को मै तभी निश्चय रूप से जानूँगा जब काट-कूट कर खराद पर चढ़ाई हुई बाते बना-बनाकर जैसे मुख से कहता हूँ वैसे ही भाव मन मे भी हो जाएँ (अर्थात् जब मुझमे अंतःकरण से आपकी भक्ति आ जायगी)।

मूल—बचन बिकार, करतबऊ खुआर, मन
बिगत-बिचार, कलिमल को निधानु है।
राम को कहाइ, नाम बेचि बेचि खाइ, सेवा
संगति न जाइ पाछिलें को उपखानु है।
ते हू ‘तुलसी’ को लोग भलो भलो कहैं, ताको
दूसरो न हेतु, एक नीके कै निदान है।
लोकरीति बिदित बिलोकियत जहाँ तहाँ,
स्वामी के सनेह स्वान हू को सनमानु है॥६४॥

शब्दार्थ—खुआर= (फा० ख्वार) खराब, बुरा कलिमल= पाप। निधानु= खजाना। सेवा सगति न जाय= ऐसी संगति में नही जाता जहाँ सेवा करनी पड़े। पाछिले को उपखानु है= जैसा कि प्राचीन लोगों ने कहा हैं (कि ‘सेवा चोर निवाले हाजिर’, अथवा ‘काम का न काज का दुश्मन