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कवितावली


वार है= (कहावत) पास मे कुछ भी नहीं है (रामचद्रजी के शरणागत होने को मुझमे कोई भी गुण नही)।

भावार्थ— मेरी अभिलाषाएँ बड़ी बड़ी हैं, रुचि भी ऊँची है, पर भाग्य अत्यंत हीन है। लोकव्यवहार के योग्य भी नहीं हूँ, क्योंकि ढीठ और झूठा हूँ। यहाँ तो भोजन-वस्त्र मिनना भी कठिन है, मोक्ष प्राप्त करने की कौन बात कहूँ? मुझे पेट भर भोजन मिलना कठिन हो रहा है। (दूसरों पर निर्भर रहने के कारण) संसार के लोगो के लिए भार हो रहा हूँ। न मै कोई नौकरी कर सकता हूँ, न खान-खुदाई कर सकता हूँ, न खेती ही कर सकता हूँ, न बाणिज्य ही कर सकता हूँ, न भीख मॉग सकता हूँ, और न मै निकम्मा कुछ कारीगरी या व्यवसाय ही जानता हूँ। अतः तुलसीदासजी कहते हैं कि मेरी प्रतिष्ठा तो रामनाम के प्रताप से ही रह सकती है, नहीं तो मेरे पास (और तो और) पितरों को भेट देने के लिए सिर से बाल भी नहीं हैं, अर्थात् मेरे पास राम तक पहुँचने के लिए रामनाम-प्रेम के अतिरिक्त और कोई भी गुण नहीं।

अलंकार—छेंकोक्ति।

मूल-अपत उतार, अपकार को अगार, जग,
जाकी छॉह छुए सहमत व्याध बाधको।
पातक-पुहुमि पालिबे को सहसानन सो,
कानन कपट को पयोधि अपराध को।
'तुलसी से बाम को भो दाहिनो दयानिधान,
सुनत सिहात सब सिद्ध साधु साधको।
राम नाम ललित ललाम कियो लानि को,
बड़ो कूर कायर कपूत कौड़ी आध को॥६८॥

शब्दार्थ— अपत= अप्रतिष्ठित। उतार= सबसे उतरा हुआ, अधम। सहमत= डरते हैं। बाधको= बाधक भी, विघ्नकर्ता भी। पातक-पुहुमि= पापरूपी पृथ्वी को। पुहुमि= भूमि । सहसानन= शेषनाग। बाम= कुटिल भी। दाहिनो= अनुकूल हुए। सिहात= ईर्ष्या करते हैं। ललित= सुन्दर। खलाम= भूषण। लाखनि को= लाखों के मोल का। कौड़ी आध को= जो आधी कौड़ी मोल का था।

भावार्थ— तुलसीदास कहते हैं कि मै अति अधम और अपकार का