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१६७
उत्तरकाण्ड

उत्तरकांड १६७ (मत्तगयंद सवैया ) षेद पुरान विहाइ सुपंथ कुमारग कोटि कुचाल चली है। काल कराल, नृपाल कृपालन राजसमाज बड़ोई छली है। बर्न-विभाग न आश्रम-धर्म, दुनी दुख-दोष दरिद्र-नली है। स्वारथ को परमारथ को कलि' राम को नाम-प्रताप बली है ॥८॥ भावार्थ-बिद्दाइ =छोड़कर । सुपथ = सुमार्ग । राजसमाज=मत्री श्रादि । दुनी-दुनिया को ! दली है = पीड़ित कर दिया है। भावार्थ-कलियुग के कारण लोगों ने वेदों और पुराणों में कहे हुए सु दर मार्ग को छोड दिया है, और कुमार्ग से चलकर करोड़ो कुचालें की हैं। समय भी विपरीत हो गया है। राजा अगर कृपालु भी हैं तो उनके दीवान मत्री आदि कर्मचारी बडे कपटी हैं। वर्ण विभाग और शाश्रमधर्म सब मिट गए हैं। दुःख, दोष और दरिद्रता ने संसार को पीड़ित कर दिया है। इतना सब कुछ होते हुए भी इस कलिकाल में सासारिक सुख- भोग के लिए और मोक्ष प्राप्त करने के लिए रामचंद्र जी के नाम का प्रताप ही बड़ा अली है। मूलन मिटै भवसंकट दुर्घट है, तप तीरथ जन्म अनेक अटो। कलि में न बिराग न ज्ञान कहूँ, सब लागत फोकट झूठ-जटो। नट ज्यों जनि पेट-कुपटक कोटिक चेटक कौतुक ठाठ ठटो। 'तुलसी' जुसदा मुखचाहिये तौरसना निसिबासर राम रटो॥८६॥ शब्दार्थ-दुर्घटन कर सकने के योग्य । अटो = धूमो । फोकट = निस्सार, कुट। जटो-मूर से जड़ा हुआ, दिखावा मात्र, पाखड । जनि- मत। कुपेटक- बुरे पिटारे से ( जैसा आजीगर रखते है ) चेटक =मत्र टोटके इत्यादि । कौतुक ठाठ बनि ठटो= कौतुक की सामग्री मत बनो, हँसी मत कराश्रो। रसना-जिह्वा से । निसिबासर-रात दिन। भावार्थ----तप करना कठिन है, अतः सासारिक दुःख नहीं मिट सकते। अनेक जन्मो तक तीर्थो में भ्रमण करो पर कलियुग में ज्ञान और वैराग्य कही भी प्राप्त न होगा, सब निस्सार और पाखडमय है। अत: नट की तरह अपने पेट रूपी बुरे पिटारे से मत्रों द्वारा करोडों खेल तमाशे मत करो।