पृष्ठ:कवितावली.pdf/२६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७७
उत्तरकांड


देते हैं मानों वे उनको कुछ समझते ही नहीं। कलियुग के पापों ने बड़े लोगों के मन को अति ही मलिन कर दिया है। पर वे मच्छर की पसुलियों से समुद्र को पाटना चाहते हैं (अर्थात् बड़े पाप करने पर भी यह समझते हैं कि हम भवसागर पार हो जायँगे)।

अलंकारछेकोक्ति।

मूल—सुनिये कराल कलिकाल भूमिपाल तुम!
जाहि घालो चाहिये कहौ धौं राखै ताहि को?
हौं तौ दीन दूबरो, बिगारो ढारो रावरो न,
मैं हूँ तैं हूँ ताहि को सकल जग जाहि को।
काम कोह लाइ कै देखाइयत आँखि मोहिं,
एते मान अकस कीबे को आपु आहि को?
साहिब सुजान जिन स्वानहू को पच्छ कियो,
रामबोला नाम, हौं गुलाम राम-साहि को॥१००॥

शब्दार्थ—'घालो चाहिये= नाश करना चाहते हो। दूबरो= (सं०) दुर्बल। बिगारो ढारो राबरो न= (मुहावरा) आपका कुछ भी बिगाड़ा, गिराया नहीं। आँखि देखाइयत= डराते हो। एते मान= इतने परिमाण में, इतना। अकस= विरोध। आहि= (स० असि) हो। सुजान= जान कर। स्वान= (स० श्वान) अवध का कुक्कुर। पच्छ कियों= तरफदारी की।

भावार्थ— हे कराल कलिकाल तुम आज राजा हो, पर मेरी बात सुनो। जिसको तुम मारना चाहते हो उसे कौन बचा सकता है? मैं तो दीन और दुर्बल हूँ और मैने आपका कुछ बगाड़ा या गिराया नहीं (अर्थात् मेरा आपका कुछ सरोकार नहीं है)। मै भी और आप भी उसी ईश्वर के जिसका सारा संसार है, फिर मुझसे इतना विरोध करनेवाले आप हैं कौन, जो काम और क्रोध को मेरे पीछे लगाकर मुझे डराते हैं। मेरे स्वामी सुजान रामचद्रजी हैं, जिन्होंने कुत्ते का भी पक्ष किया था। मैं स्वामी रामचंद्रजी का सेवक हूँ और मेरा नाम ‘रामबोला’ है।