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कवितावली


का अध्ययन करने पर भी पुण्य कर्म में नहीं लगता। माता-पिता की भक्ति से रहित पुत्र व्यर्थ है। वह स्त्री भी व्यर्थ है जिसको पति से प्रेम न हो। परन्तु यदि रामचंद्रजी के चरणो से नित्य स्नेह नही है तो उपर्युक्त सब ही व्यक्ति व्यर्थ हैं।

अलंकार—तुल्ययोगिता।

मूल—को न क्रोध निरदह्यो, काम बस केहि नहिं कीन्हों?
को न लोभ दृढ़ फंद बॉधि त्रासन कर दीन्हों?
कौन हृदय नहि लाग कठिन अति नारिनयन-सर?
लोचनजुत नहि अध भयो श्री पाइ कौन नर?
सुर-नागलोक-महिमंडलहु को जो मोह कीन्हों जय न?
कह 'तुलसिदास' सो ऊवरै जेहि राख राम राजिवनयन॥११७॥

शब्दार्थ—निरदह्यो= जलाया सतप्त किया। त्रासन= भयभीत। कौन= किसके। नारिनयन सर= स्त्रियो के कटाक्ष। लोचनजुत= लोचनयुक्त होंते हुए भी। श्री= लक्ष्मी, धन-सपत्ति। नागलोक= पाताल। ऊपरै= छूट जाता है, बच जाता है।

भावार्थ—ऐसा कौन है जिसको क्रोध ने नही जलाया? काम ने किसको वश में नही किया? लोभ ने दृढ़ फदे में बाँधकर किसको भयभीत नहीं किया? स्त्रियों के तीव्र कटाक्ष ने किसके हृदय में कुछ असर नहीं किये? धन वैभव पाकर ऑख होते हुए भी कौन मनुष्य अधा नहीं हुआ? स्वर्ग, पाताल और पृथ्वीमडल में ऐसा कौन है जिसको मोह ने न जीता हो? (तात्पर्य यह कि ऐसा कोई भी नही जो काम, क्रोध, लोभ, मोह और स्त्री के वश में न हुआ हो) तुलसीदास कहते हैं कि इनसे तो वही बच सकता है जिसको कमलनेत्र रामचन्द्रजी अपनी शरण में ले ले।

अलंकार—काकुवक्रोक्ति।

मूल—
(सवैया)

भौंह-कमान-सॅधान सुठान जे नारि-बिलोकनि-बान तें बाँचे।
कोप कृसानु गुमान अवॉ घट ज्यों जिनके मन आँच न आँचे।
लोंभ सबै नट के बस ह्वै कपि ज्यों जग मे बहु नाच न नाँचे।
नीके हैं साधु सबै 'तुलसी', पै तेई रघुबीर के सेवक साँचे॥११८॥

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