पृष्ठ:कवितावली.pdf/३०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२१६
उत्तरकांंड
मूल—
 

दानी जो चारि पदारथ को त्रिपुरारि तिहूँ पुर में सिर टीको।
भोरो भलो, भले भाय को भूखो, भलोइ कियो सुमिरे 'तुलसी' को।
ता बिनु आस को दास भयो, कबहूँ न मिट्यो लघु लालच जी को।
साधो कहा करि साधन तैं जो पै राधो नहीं पति पारवरती को॥१५६॥

शब्दार्थ—नारि पदारथ= धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष। सिर टीको= शिरोमणि! भोरो= भोले हैं। भले भाय= सद्भाव, शुद्ध भक्ति। सुमिरे= स्मरण करने से। साधो= सिद्ध किया, लाभ उठाया। राधो= आराधना की।

भावार्थ—जो त्रिपुरारि शिवजी धर्मार्थकाममोक्ष चारो पदार्थों के देनेवाले हैं, और तीनो लोको मे सबके शिरोमणि हैं, बडे भोले-भाले (अर्थात् थोढे मे प्रसन्न हो जानेवाले) हैं, अपने भक्तो मे शुद्ध भक्ति के अतिरिक्त और कुछ नही चाहते और जिन्होने केवल स्मरण करने से ही तुलसीदास का भला किया, एसे शिवजी को स्मरण करना छोड़कर तू श्राशा का दास बना रहा (अर्थात् सासारिक सुखों की आशा लगाए रहा) और तेरे मन से लालच थोड़ा भी दूर न हुआ। अगर ऐसे पार्वतीपति शिवजी की आराधना नही की तो योगादि साधनो से तूने क्या लाभ उठाया?

मूल—
 

जात जरे सब लोक विलोकि त्रिलोचन सो बिष लोक लियो है।
पान कियो बिष, भूषन भो, करुना-बरुनालय साँइ हियो है।
मेरोई फोरिबे जोग कपार, किधौं कछु काहू लखाय दियो है।
काहे न कान करो बिनती 'तुलसी' कलिकाल बिहाल कियो है॥१५७४॥

शब्दार्थ—लोकि लियो है= झपट कर ले लिया, देखकर विष का प्रभाव कम कर दिया! पान कियो= पी लिया। बरुनालय= (वरुण=जल + आलय= घर) समुद्र (वरुण जल के अधिष्ठाता देवता हैं)। करुना-बरुना-लय= दया के सागर। किधौं कछु काहू लखाई दियो है= अथवा किसी ने आपको मरा कोई दोष दिखला दिया है। कान करना= (मुहावरा) सुनना। बिहाल= व्याकुल।

भावार्थ—सब लोको को (विष से) जलता हुआ देखकर त्रिलोचन शिवजी ने उस विष को झपटकर ग्रहण कर लिया और पी गए जिससे वह