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कवितावली

पर चढ़ाऊँगा। क्या आज्ञा होती है? हे तुलसी! केवट के सुन्दर वचन सुनकर रामचन्द्रजी सीताजी की और देखकर हँसे।

शब्दार्थ―रावरे = आपका। भूरि = बड़ा। पाहन = पत्थर। बन-बाहन = पानी की सवारी, नाव। हँसे हहा है = जोर से हँसे।

घनाक्षरी

[ ३० ]

पात भरी सहरी*, सकल सुत बारे बारे,
केवट की जाति कछु बेद ना† पढ़ाइहौं।
सब परिवार मेरो याही लागि, राजाजू!
हौं दीन बित्तहीन कैसे दूसरी गढ़ाइहौं?॥
गौतम की घरनी ज्यों तरनी तरैगी मेरी,
प्रभु सों निषाद ह्वैकै बाद न बढ़ाइहौं।
तुलसी के ईस राम रावरे सों‡ साँची कहौं,
बिना पग धोये नाथ नाव न चढ़ाइहौं॥

अर्थ― पत्ते में भरी मछली के से मेरे सब लड़के छोटे छोटे हैं, [रिघुनाथदासजी ने यह अर्थ भी किया है,―पाँति भारी सहित हूँ अर्थात् मेरा कुटुंब बड़ा है, अथवा पात (पाप) भारी है, बड़ा पापी हूँ और सब लड़के बारे-बारे बाल बुद्धिवाले, अज्ञानी हैं।] मैं जाति का केवट हूँ, उन्हें कुछ वेद तो न पढ़ा दूँगा (जिससे कुछ कमा खा लें)। हे राजाजी, इसी से सब कुटुम्ब लगा है और मैं दीन दरिद्री हूँ, दूसरी नाव कैसे बनवाऊँगा। गौतम की स्त्री अहिल्या की तरह मेरी नाव भी तर जायगी। आपसे निषाद होकर बात क्या बढ़ाऊँ (क्या हुज्जत करूँ), परन्तु हे तुलसीदास के प्रभु! आपसे मैं सच कहता हूँ अथवा 'सौ' पाठ से आपकी कसम खाता हूँ कि बिना पैर धोये नाव पर नहीं चढ़ाऊँगा।

शब्दार्थ―सहरी = मछली। निषाद = केवट।



*पाठान्तर―सहरि।
†पाठान्तर―न।
‡पाठातर―सौं।