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अयोध्याकाण्ड


अवलोकि अलौकिक रूप मृगी मृग चौंकि चकैं चितवैं चित दै।
न डगैं, न भगैं, जिय जानि सिलीमुख पंच धरे रतिनायक है॥

अर्थ—चार सुन्दर बाण बनाकर कटि पर कसे हैं और हाथ में धनुष-बाण लेकर रामचन्द्र शिकार खेलते फिरते हैं। तुलसीदास उस रूप को क्योंकर वर्णन करै अलौकिक (संसार में न मिलनेवाले) रूप को देखकर मृगी और मृग चौंक उठते हैं और आश्चर्य से चित्त देकर (मोहित होकर) देखने लगते हैं, न हिलते हैं न भागते हैं, मन में यह समझकर कि पाँच बाण धरे कामदेव हैं।

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बिंध्य के बासी उदासी तपोब्रत-धारी महा बिनु नारि दुखारे।
गौतमतीय तरी, तुलसी, सो कथा सुनि भे मुनिबंद सुखारे॥
ह्वै हैं सिला सब चंद्रमुखी परसे पद-मंजुल-कंज तिहारे।
कीन्हीं भली रघुनायकजू करुना करि कानन को पगु धारे॥

अर्थ—विन्ध्याचल में रहनेवाले, परम उदासीन, बड़े तप और व्रत को धारण करनेवाले बिना स्त्री के दुखी थे। “गौतम की स्त्री तर गई”, हे तुलसी! यह कथा सुनकर, मुनियों के समूह सुखी हुए। तुम्हारे कमल के से पैर के छूने से सब पत्थर चन्द्रमुखी (स्त्री) हो जायेंगी और सबको बिना परिश्रम स्त्रियाँ मिल जायेंगी। हे रामचन्द्रजी! आपने भला किया जो कृपा करके वन में पैर रक्खा।


इति अयोध्याकाण्ड


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