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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१३३

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• R दो में एको तो न भई । कविता - कौमुदी आनि भई । दरें ॥ खई । भई ॥ गई ॥ नः हरि भजे न गृह सुख पाये वृथा बिहाय गई ॥ टानी हुती और कछु मन में और अवगत गति कछु समति परत नहि जो कछु करत सुत सनेह तिय सकल कुटुम मिलि निसिदिन होत पद नख चंद चकोर विमुख मन खात अँगार विषय विकार दुवानल उपजी मोह बयार भ्रजत भ्रमत बहुते दुख पाये। अजहु न टेब कहा होत अबके पछताने होती सिर बितई । सूरदास सेये न कृपानिधि जो सुख, सकल भई ॥ ४६ ॥ अदभुत एक अनूपम बाग । बई । जुगुल कमल पर गज वर कोड़त तापर सिंह करत अनुराग ॥ हरि पर सरवर, सर पर गिरिवर गिरि पर फूले कंज पराग । रुचिर कपोत बसत ता ऊपर ताहू पर अमृत फल लाग ॥ फल पर पुहुप, पुहुप पर पालव, तापर सुक, पिक, मृगमद, काग । खंजन धनुष चंद्रमा ऊपर ता ऊपर यक मनिधर नाग || अंग अंग प्रति और और छवि उपमा ताको करत न त्याग | सूरदास प्रभु पियहु सुधारस मानहु अधरन को बड़भाग ५० ॥ आपको आपनहीं बिलरो । जैसे स्वान काँच के मन्दिर भ्रमि भ्रमि भूँकि मरो । ज्यों केहरि प्रतिमा के देखत बरबस कूप परो || मरकट मूठि छोड़ि नहीं दीनी घर घर द्वार फिरो । सूरदास नलिनी के सुचना कह कौने एकरो ॥ ५१ ॥ ( दोहा ) भौंरा भोगी बन भ्रमै मोद न माने ताप 1 कुसुमनि मिल रस करें कमल बधावे अप ॥ १ ॥