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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१७७

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कविता-कौमुदी
 

हृदय में गिरिधर गोपाल के लिये बड़ी भक्ति थी और ये, रात दिन गिरिधर नागर के प्रेम में ही मतवाली रहती थीं। अपने कुल की लज्जा छोड़ कर जब ये बेधड़क साधु सेवा करने लगी, तब यह बात इनके देवर विक्रमाजीत को, जो महाराजा रतनसिंह के बाद चित्तौड़ की गद्दी पर बैठे थे बहुत खटकी। उन्होंने मीरा को बहुत समझाया, और चम्पा और चमेली नाम की दो दासियाँ इस अभिप्राय से मीरा के पास रखी कि वे साधु संगति की ओर से मोरा का चित्त हटाती रहें। परन्तु मीरा की संगति से उन दोनों दासियों पर भी भक्ति का रंग चढ़ गया। तब राना ने अपनी सगी बहन ऊदा को मीरा के पास समझाने के लिये भेजा। परन्तु मीरा अपने प्रण से नहीं टली, उलटे ऊदा का ही चित्त मीरा के प्रेम पर आसक्त होगया। वह मीरा की चेली हो गई। तब राणा ने मीरा को विष का प्याला भेजा। मीरा ने उसे भगवान का चरणामृत समझ कर पी लिया। कहते हैं कि उस विष का मीराबाई पर कुछ भी असर न हुआ। इतने पर भी जब राणा ने नहीं माना और वे बराबर उपाधि करते रहे, तब मीरा ने घबड़ा कर गोस्वामी तुलसीदासजी को यह पद लिख कर भेजा—

श्री तुलसी सुख निधान दुःख हरन गुसाँईं।
बारहिं बार प्रनाम करूँ अब हरो सोक समुदाई॥
घर के स्वजन हमारे जेते सबन उपाधि बढ़ाई।
साधु संग अरु भजन करत मोहिं देत कलेस महाई॥
बालपने ते मीरा कीन्हीं गिरधर लाल मिताई।
सो तो अब छूटत नहिं क्यों हूँ लगी लगन बरियाईं॥