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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१७९

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कविता-कौमुदी
 

जो मैं ऐसा जाणती रे प्रीति कियै दुःख होय‌।
नगर ढँढोरा फेरती रे प्रीत करो मत कोय॥
पंथ निहारूँ डगर बुहारूँ ऊबी मारग जोय।
मीरा के प्रभु कबरे मिलोगे तुम मिलियाँ सुख होय॥१॥
हेरी मैं तो प्रेम दिवाणी मेरा दरद न जाणे कोय॥
सूली ऊपर सेज हमारी किस विध सोणा होय॥
गगन मंडल पै सेज पिया की किस विध मिलणा होय॥
घायल की गति घायल जानै की जिन लाई होय॥
जौहरी की गति जौहरी जानै की जिन जौहर होय॥
दरद की मारी बन बन डोलूँ वैद मिल्या नहिं कोय॥
मीरा की प्रभु पीर मिटैगी जब वैद सँवलिया होय॥२॥
बंसी बारो आयो म्हारे देस थाँरी साँवरी सुरत बाली बैस॥
आऊँ आऊँ कर गया साँवरा कर गया कौल अनेक।
गिणते गिणते घिस गई उँगली घिस गई उँगली की रेख॥
मैं वैरागिणि आदि की थाँरे म्हारे हुइ कद को सनेस।
बिन पाणी बिन सावुन साँवरा हुइ गई धुई सपेद॥
जोगिण हुई जंगल सब हेरुँ तेरा नाम न पाया भेस।
तेरी सुरत के कारणे धर लिया भगवा भेस॥
मोर मुकुट पीताम्बर सोहै घूँघर वाला केस।
मीरा को प्रभु गिरिधर मिल गये दूना बढ़ा सनेस॥३॥
राम मिलण रो घणो उमावो नित उठ जाऊँ बाटड़ियाँ।
दरसण बिन मोहिँ पल न सुहावै कल न पड़त हैं आँखड़ियाँ॥
तलफ तलफ के बहु दिन बीते पड़ी बिरह की फाँसड़ियाँ।
अब तो वेगि दया कर साहिब मैं हूँ तेरी दासड़ियाँ॥
नैण दुःखी दरसण को तिरसे नाभि न बैठे साँसड़ियाँ।
रात दिवस यह आरत मेरे कब हरि राखे पासड़ियाँ॥