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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१८०

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मीराबाई
१२५
 

लगी लगन छूटण की नाहीं अब क्यों कीजै आटड़ियाँ।
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर पूरौ मन की आसड़ियाँ॥४॥

पायो जी, मैंने नाम रतन धन पायो।

वस्तु अमोलकदी मेरे सतगुरु किरपा कर अपनायो॥
जनम जनम की पूँजी पाई जग में सभी खोवायो॥
खरचै नहिँ कोई चोर न लेवे दिन दिन बढ़त सवायो॥
सत की नाच खेवटिया सतगुरु भवसागर तर आयो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर हरख हरख जस गायो॥५॥

बसो मेरे नैनन में नन्दलाल।

मोहनी मूरति साँवरि सूरति नैना बने बिसाल।
अधर सुधा रस मुरली राजित उर बैजन्ती माल॥
छुद्र घंटिका कटि तदि सोभित नूपुर सब्द रसाल।
मीरा प्रभु संतन सुखदाई भक्त बछल गोपाल॥६॥

करम गत टारे नाहि टरें।

सतवादी हरिचँद से राजा नीच घर नीर भरे।
पाँच पांडु अरु कुंती द्रोपती हाड़ हिमालय गरे॥
जब किया बलि लेण इंद्रासन सो पाताल धरे।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर विष से अमृत करें॥७॥
मेरे तो एक राम नाम दूसरा न कोई।
दूसरा न कोई साधो सकल लोक जोई॥
भाई छोड्या बंधु छौड्या छोड्या सगा सोई।
साध संग बैठ बैठ लोक लाज खोई॥
भगत देख राजी हुई जगत देख रोई।
प्रेम नीर सींच सींच विष बेल धोई॥
दधिमथ घृत काढ़ लियो डार दई छोई।
राणा विष को प्याल्यो भेज्यो पीय मगन होई॥