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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१९६

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दादूदयाल
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होई" इस कहावत अनुसार हमें इनका गुण ही देखना चाहिये। गुण की कोई जाति नहीं है। जाति चाहे ऊँच हो या नीच, गुण का आदर सर्वत्र होगा।

दादूदयाल का गुरु कौन था, इसका भी ठीक ठीक पता नहीं। लोग कहते हैं कि कमाल इनके गुरु थे। कमाल कबीर के पुत्र थे। दादू दयाल की पदावली में कबीर का नाम तो कई स्थानों पर आया है परन्तु कमाल का एक स्थान पर भी नहीं। दादू दयाल ने गुरु की महिमा भी बहुत गाई है। ऐसी दशा में यदि कमाल इनके गुरु होते, तो उनका नाम भी कहीं न कहीं आता ही।

दादू पंथियों के कथनानुसार, कबीर साहब की तरह दादू दयाल भी बालक रूप में, लोदीराम नागर ब्राह्मण को साबरमती नदी (अहमदाबाद) में बहते हुए मिले थे। इनके विषय में भी बहुत सी चमत्कार की कहानियाँ प्रसिद्ध हैं। ये बड़े क्षमाशील थे, इसी से लोगों ने इन्हें "दयाल" की पदवी दी थी। और ये सब को दादा कहा करते थे इसी से लोग इन्हें 'दादू' कहने लगे।

दादूदयाल, आमेर में जो जयपुर की पुरानी राजधानी है, १४ वर्ष तक रहे। वहाँ से जयपुर, मारवाड़, बीकानेर आदि स्थानों में घूमते हुये सं॰ १६५९ में नराना में, जो जयपुर से २० कोस पर है, आकर ठहर गये। वहाँ से तीन चार कोस पर भराने की पहाड़ी है वहाँ भी ये कुछ समय तक रहे, और सं॰ १६६० में वहीं इन्होंने शरीर छोड़ा। इसी कारण से वह स्थान बहुत पवित्र समझा जाता है। समस्त दादू पंथियों के मुखिया वहीं रहते हैं। वहाँ दादूदयाल का एक मन्दिर है। उसमें उनके कपड़े और पोथियाँ अब तक है।