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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१९७

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कविता-कौमुदी
 

वहाँ प्रति वर्ष फागुन सुदो ४ से द्वादशी तक, नौ दिन बड़ा भारी मेला लगता है। इस पंथ में दो प्रकार के साधू पाये जाते हैं, एक भेसधारी विरक्त, दूसरे नागा। भेसधारी विरक्त गेरुआ वस्त्र पहनने हैं और कथा कीर्त्तन में अपना समय बताते हैं। नागा सफेद सादे कपड़े पहनते हैं और खेती, फौज की नौकरी तथा वैद्यक आदि करके जीविका चलाते हैं। जयपुर राज्य की नागों की सेना प्रसिद्ध ही हैं। दोनों प्रकार के साधू विवाह नहीं करते। गृहस्थों के लड़कों को चेला मूँड़ कर अपना पंथ चलाते हैं। ये लोग न तो तिलक लगाते हैं और न गले में कंठी पहनते हैं। प्रायः हाथ में एक सुमिरनी रखते हैं। सिर पर टोपी या पगड़ी पहनते हैं, और आते जाते समय एक दूसरे से "सत्त राम" कहते हैं।

दादू दयाल निरञ्जन निराकार परब्रह्म के उपासक थे। और उसी को सब में रमने वाला राम कह कर सुमिरन करते कराते थे।

ये हिन्दी, फ़ारसी, गुजराती, मारवाड़ी और मराठी आदि कई भाषाओं के ज्ञाता थे। गुजराती और हिन्दी भाषा में इनकी कविताएँ बड़ी ही हृदय-वेधक हुई हैं। जब मैं इनकी कविता का अध्ययन कर रहा था तब कई स्थानों पर मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि संसार प्रसिद्ध महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर की गीतांजलि के भावों से उनमें विशेष महीन और प्रेमाभिसिक्त भाव हैं। दोनों के भाव और कहने के ढंग में कहीं कहीं बड़ी समता पाई जाती है।

दादू दयाल की साखी में वह रस नहीं है जो कबीर साहब की साखी में पाया जाता है। परन्तु दादू दयाल के पदों में प्रेम का जो मनोहर रूप प्रकट हुआ है वह कबीर साहब