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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२०१

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कविता-कौमुदी
 

बटाऊ रे चलना आजि कि कालि।

समझि न देखै कहा सुख सोवै रे मन राम सँभालि॥
जैसे तरवर बिरस बसेरा पंखी बैठे आइ।
ऐसे यहु सब हाट पसारा आप आप कौं जाइ॥
कोइ नहिं तेरा सजन सँगाती जिनि खोवे मन भूल।
यहु संसार देखि जिनि भूलै सब ही सेंवल फूल॥
तन नहिं तेरा धन नहिं तेरा कहा रह्यो इहिं लागि।
दादू हरि बिन क्यों सुख सोवै काहे न देखै जागि॥५॥
जागि रे सब रैणि बिहाणी जाइ जनम अँजुली कौ पाणी।
घड़ी घड़ी घड़ियाल बजावै जे दिन जाइ से बहुरि न आवै
सूरज चंद कहैं समझाइ दिन दिन आयू घटनी जाइ
सरचर पाणी तरवर छाया निसदिन काल गरासै काया
हंस बटाऊ प्राण पयाना दादू आतमराम न जाना॥६॥

बातैं बादि जाहिंगी भइये।
तुम जिनि जानौ बातनि पइये॥

जब लग अपना आप न जाणै तब लग कथनी काची।
आपा जाणि साईं कूँ जाणै तब कथनी सब सांची॥
करणी बिना कंत नहि पावै कहे सुने का होई।
जैसी कहै करै जे तैसी पावेगा जन सोई॥
बातनिहीँ जे निरमल होवै तौ काहे कूँ कसि लीजै।
सोना अगिनि दहै दस बारा तब यहु प्राण पतीजै।
यों हम जाणा मन पतियाना करनी कठिन अपारा।
दादू तन का आपा जारै तौ तिरत न लागै बारा॥७॥