सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
नरोत्तमदास
१५१
 

शोक भयो सुरनायक के जब दूसरी बार लयो भरि झोंकों।
मेरु डरै बकसै जिन मोहि कुबेर चबावत चामर चोंको॥२५॥

हूल हियरामें कान कानन परी है टेर भेटत सुदामैं श्याम
बनै न अघातही। कहै नरोत्तम ऋद्धि सिद्धिन में शोर भयो
ठाड़ी थरहरे और सोचे कमला तहीं॥ नाग लोक लोक लब
ओक ओक थोक थोक ठाढ़े थरहरैं मुख से कहैं न बातहीं।
हालो परयो लोकन में लाली परयो चक्रिन में चालो परयो
लोगन में चामर चबातहीं॥२६॥

भौन भरे पकवान मिठाइन लोग कहैं निधि हैं सुखमाके।
साँझ सबेरे पिता अभिलाषत दाखन प्राखत सिंधु रमाके॥
ब्राह्मण एक कोऊ दुखिया सेर पावक चामर लाया समाके।
प्रीति की रीति कहा कहिये तिहि बैठे चबावत कंत रमाके॥२७॥

मूठी दुसरी भरत ही रुक्मिनि पकरी बाँह।
ऐसी तुम्हें कह भई संपति की अनचाह॥२८॥
कही रुक्मिनी कान में धौं कौन मिलाप।
करत सुदामहि आपसो होत सुदामा आप॥२९॥

हाथ गह्यो प्रभु को कमला कहै नाथ कहा तुमने चित धारी।
तंदुल खाय मुठी दुइ दीन कियो तुमने दुइ लोक बिहारी॥
खाय मुठी तिसरी अब नाथ कहा निज बास की आस बिसारी।
रङ्कहि आप समान कियो तुम चाहत आ पहि होन भिखारी॥३०॥

रूपे के रुचिर थार पायस सहित शोभा, सब जीत लीनी
शोभा शरद के चंदकी। दूसरे परोस्यो भात सान्यो है सुरभि
घृत, फूलैफूले फुलके प्रफुल्लिदुति मंदकी॥ पापर मुँगौरी बरा
बेसन अनेक भाँति, देवता विलोकि शोभा भोजन अनंदकी।
या विधि सुदामा जी को अच्छकै जिमाय फिर पाछेकै पछा-
वरि परोसी आनि कंद की॥३१॥