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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२०७

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कविता-कौमुदी
 

काह्यो विश्वकर्मा को हरि तुम जाय करि नगर सुदामा
जी को रचौ वेग अवही। रतन जडित धाम सुवरणमयी सब,
कोट औ बजार बाग फूलनके तबही॥ कल्पवृक्ष द्वार गज
रथ असवार प्यादे कीजिये अपार दास दासी देव छबही॥
इन्द्र औ कुबेर आदि देव बधू अपसरा। गंधरब गुणी जहाँ
ठाढ़े रहैं सबही॥३२॥

नित नित सब द्वारावती दिखलाई प्रभु आप।
भरे बाग अनुराग सब जहाँ न व्यापहिं ताप॥३३॥
परम कृपा दिन दिन करी कृपानाथ यदुराय।
मित्र भावना विस्तरी दूनों आदर भाय॥३४॥

दाहिने वेद पढ़ें चतुरानन सामुहे ध्यान महेश धरयो है।
बायें दोऊ करजोर सुसेवक देवन साथ सुरेश खरयो है॥
एतन बीच अनेक लिये धन पायन आय कुबेर परयो है।
देखि विभो अपनो सपनो बपुरो वह ब्राह्मण चौंकि परयो है॥३५॥

देनो हुतो सो देचुके विप्र न जानी गाथ।
चलती बेर गुपाल जी कछू न दोनो हाथ॥३६॥
गोपुर लों पहुँचाय के फिरे सकल दरबार।
मित्र वियोगी कृष्ण के नेत्र चली जल धार॥३७॥
हौं आवत नाहीँ हुतौ बामहि पठ्यो ठेल।
अब कहिहौं समझाय के बहु धन धरौ सकेल॥३८॥
बालापन के मित्र हैं कहा देउँ मैं शाप।
जैसो हरि हमको दियो तैसो पइयो आप॥३९॥
और कहा कहिये जहाँ कञ्चन ही के धाम।
निपट कठिन हरि को हियो मोको दियो न दाम॥४०॥
इभि सोचत सोचत झकत आये निज पुर तीर।
दृष्टि परी इक बारहीं हृय गयंद की भीर॥४१॥