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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२१७

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कविता-कौमुदी
 

दुरदिन परे रहीम कहि दुरथल जैयत भागि।
ठाढ़े हुजत घूर पर जब घर लागत आगि॥५८॥
प्रीतम छवि नैनन बसी पर पर छबि कहाँ समाय।
भरी सराय रहीम लखि आप पथिक फिरिजाय॥५९॥
गुरुता कवं रहीम कहि फबि आई है जाहि।
उर पर कुच नोके लगैं अनत बतौरी आहि॥६०॥
कुटिलन संग रहीम कहि साधू बचते नाहिं।
ज्यों नैना सैननि करैं उरज उमेठे जाहिं॥६१॥
कौन बड़ाई जलधि मिलि गंग नाम भौ धीम
केहि की प्रभुता नहिं घटी पर घर गये रहीम॥६२॥
मान सरोवर ही मिलैं हंसनि मुक्ता भोग।
सफरिन भरै रहीम सर बक बालकनहि योग॥६३॥
रहिमन बिगरी आदि की बनै न खरचे दाम।
हरि बाढ़े आकास लौं तऊ बावनै नाम॥६४॥
रहिमन रिस सहि तजत नहिं बड़े प्रीति को पौरि।
मूँकन मारत आवई नीँद बिचारी दौरि॥६५॥
मनसिज माली की उपज कही रहीम न जाय।
फूल श्याम के उर लगे फल श्यामा उर आय॥६६॥
जेहि रहीम तन मन दियो कियो हिए बिच भौन।
तासों दुःख सुख कहन को रहो बात अब कौन॥६७॥
जो पुरुषारथ ते कहूँ सम्पति मिलति रहीम।
पेट लागि बैराट घर तपत रसोई भीम॥६८॥
सब कोऊ सब सों करै राम जुहार सलाम।
हित रहीम तब जानिये, जा दिन अटकै काम॥६९॥
ज्यों रहीम गति दीप की कुल कपूत गति सोय।
बारे उजियारो लगै बढ़े अँधेरो होय॥७०॥