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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२१८

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रहीम
१६३
 

छोटेन सों सोहैं बड़े कहि रहीम यहि लेख।
सहसन को हय बाँधियत ले दमरी की मेख॥७१॥
सम्पति भरम गवाँइ के हाथ रहत कछु नाहिं।
ज्यों रहीम शशि रहत हैं दिवस अकासहि माहि॥७२॥
अनुचित उचित रहीम लघु करहिं बड़ेन के जोर।
ज्यों शशि के संयोग ते पचवत आगि चकोर॥७३॥
काम कछू आवै नहीं मोल न कोऊ लेइ।
बाजू टूटे बाज को साहब चारा देइ॥७४॥
धनि रहीम जल पंक को लघु जिय पियत अधाय।
उ‌दधि बड़ाई कौन है जगत पियासो जाय॥७५॥
माँगे घटत रहीम पद कितो करो बढ़ि काम।
तीन पैग बसुधा करी तऊ बावनैं नाम॥७६॥
नाद रीझि तन देत मृग नर धन हेत समेत।
ते रहीम पशु ते अधिक रीझेहु कछू न देत॥७७॥
रहिमन कबहुँ बड़ेन के नाहिं गर्व को लेश।
भार धरें संसार को तऊ कहावत शेष॥७८॥
रहिमन नीचन संग बसि लगत कलंक न काहि।
दूध कलारिन हाथ लखि मद समुझहिं सब ताहि॥७९॥
रहिमन अब वे बिरछ कहँ जिनकी छाँह गंभीर।
बागन बिच बिच देखियत सेंहुँड़ कंज करीर॥८०॥
मुकता करैं कपूर करि चातक जीवन जोय।
येतो बढ़ो रहीम जल व्याल बदन विष होय॥८१॥
शशि की शीतल चाँदनी सुन्दर सबहिं सुहाय।
लगे चार चित में लटी घटि रहीम मन आय॥८२॥
अमृत ऐसे बचन में रहिमन रिस की गाँस।
जैसे मिसि रिहु में मिली निरस बाँस की फाँस॥८३॥