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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२२०

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रहीम
१६५
 

यों रहीम गति बड़ेन की ज्यों दाग तुरंग व्यवहार।
दाग दिबावत आपु तन सही होत असवार॥१७॥
रहिमन निज मन की व्यथा मनहीं राखौ गोय।
सुनि अठिलैहैं लोग सब बाँटि न लैहैं कोय॥६८॥
रहिमन चुप ह्वै बैठिये देखि दिनन को फेर।
जब नीके दिन आइ हैं बनत न लगि हैं देर॥६६॥
गहि सरनागति राम की भवसागर की नाव।
रहिमन जगत उधार कर और न कल्लू उपाव॥१००॥
रहिमन वे नर मर चुके जे कहु माँगन जाहि।
उनसे पहिले ये मुए जिन मुखनिकसतिनाहिं॥१०१॥
जाल परे जलजात बहि तजि मीनन को मोह।
रहिमन मछरी नीर को तऊ न छाँड़ति छोह॥१०२॥
धन दारा अरु सुतन में रहत लगाए चित्त।
क्यों रहीम खोजत नहीं गाढ़े दिन को मिस॥१०३॥
अमी हलाहल मद भरे श्वेत श्याम रतनार।
जियत मरत झुकिलुकि परत जिहि चितवत एक बार॥१०४॥
कमला थिर न रहीम कहि लखत अधम जे कोइ।
प्रभु की सो अपनी कहै क्यों न फजीहत होइ॥१०५॥
रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरै मोती मानुस चून॥१०६॥
जाय समानी उद‌धि में गंग नाम भयो धीम।
काकी महिमा ना घटी पर गर गये रहीम॥१०७॥
मान सरोवर ही मिले हंसन मुक्ता भोग।
सफरी भरे रहीम ए विपुल बिलोकन योग॥१०८॥
बढ़त रहीम धनाढ्य धन धनै धनी को जाइ।
घटे बढ़ै तिन को कहा भीख माँगि जो खाइ॥१०९॥