सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६६
कविता-कौमुदी
 

रहिमन रहिला की भली जो परसै चित लाय।
परसत मन मैला मली करे सो मैदा जरि जाय॥११०॥
खैर खून खाँसी खुशी बैर प्रीति मधु पान।
रहिमन दाबे ना दबे जानत सकल जहान॥१११॥
गगन चढ़ै फिर क्यों तिरै रहिमन बहरी बाज।
फेरि आइ बंधन परै पेट अधम के काज॥११२॥
काज परे कछ और है काज सरे कछु और।
रहिमन भाँवर के भये नदी सेरावत मौर॥११३॥
रहिमन चाक कुम्हार को माँगे दिया न देइ।
छेद में डंडा डारि के चहै नाँद लइ लेइ॥११४॥
अब रहीम मुसकिल परी गाढ़े दोऊ काम।
साँचे से तो जग नहीं झूठे मिलें न राम॥११५॥
रहिमन कोऊ का करै ज्वारी चोर लबार।
जो पति राखनहार है माखन चाखनहार॥११६॥
रहिमन विपदा तू भली जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में जानिपरत सबकोय॥११७॥
साधु सराहै साधुता जती जोखिता जान।
रहिमन साँचे सूर को बैरी करै बखान॥११८॥
करत निपुनई गुन बिना रहिमन निपुन हजूर।
मानो टेरत बिटप चढ़ि मोहिं समान को कूर॥११९॥
यों रहीम सुख होत है उपकारी के अँग।
बाँटनबारे के लगै ज्यों मेहँदी को रंग॥१२०॥
भूष गनत लघु गुनिन को गुनी गनत लघु भूप।
रहिमन गिरि ते भूमि लौं लखो तो एकै रूप॥१२१॥
तैं रहीम मन आपनो कीन्हों चारु चकोर।
निसि वासर लाग्यो रहैं कृष्णचन्द्र की ओर॥१२२॥