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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२२७

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कविता-कौमुदी
 

विप्र न नेगी कीजिये मूढ़ न कीजे मित्त।
प्रभु न कृतघ्नी सेइये दूषण सहित कवित्त॥

धीरज मोचन लोचन लोल विलोकि कै लोककी लीकति छूटी।
फूट गये श्रुति ज्ञान के केशव आँख अनेक विवेक की फूटी॥
छोड़ि दई सरिता सब काम मनोरथ के रथ की गति छूटी।
त्यों न करे करतार उबारक जो चितवै वह बारवधूटी॥

तोरि तनी टकटोर कपोलनि जोरि रहे कर त्यों न रहौंगी।
पान खवाइ सुधाधर पान कै पाइ गहे तस हौं न गहौगी॥
केसव चूक सबै सहिहौं मुख चूमि चले यह तो न सहौंगी।
कै मुख चूमन दे फिरि मोहि कै आपनी धाय सों जाय कहौंगी॥

भूषण सकल धनसारही के घनश्याम, कुसुम कलित
केशरही छबि छाई सी। मोतिन की लरी सिर कंठ कंठ माल
हार, और रूप ज्योति जात हेरत हेराई सी॥ चंदन चढ़ाये
चारु सुन्दर शरीर सब, राखी जनु सुभ्र शोभा बसन बनाई
सी। शारदा सी देखियतु देखो जाइ केशोराइ ठाड़ी वह
कुँवरि जुन्हाई में अन्हाई सी॥

मन ऐसो मन मृदु मृदुल मृणालिका के सूत कैसो सुर
ध्वनि मननि हरति है। दासी कैसो बीज दाँत पाँत से अरुण
ओठ, केशोदास देखि दृग आनंद भरति है॥ येरी मेरी तेरी
मोहिं भावत भलाई तातें, बूझति हौं तोहिं और बूझत डरति
है। माखन सी जीभ मुख कंज सी कोमलता में काठ सी कोठी
बात कैसे निकरति है॥