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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२२८

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केशवदास
१७३
 

"डित पुत्र, सुधी पतिनी जु पतिव्रत प्रेम परायण भारी।
जानै सबै गुण, मानै सबै जग, दान विधान दया उर धारी।
केशव रोगनहीं सो वियोग, संयोग सुभोगन सों सुखकारी।
साँच कहे, जग माँह लहे यश, मुक्ति यहै चहुँ वेद विचारी॥

बाहन कुचाली, चोर चाकर, चपल चित, मित्र मति हीन,
सूम स्वामी उर आनिये॥ पर वश भोजन, निवास वास कुकु-
रन, वरषा प्रवास, केशोदास दुःखदानि ये। पापिन के अंग संग,
अंगना अनंग वश अपयश युत सुत, चित हित हानि ये।
मृढ़ता बुड़ाई, व्याधि, दारिद, झुठाई, आधि, यहई नरक
नरलोकनि बखानिये॥

कैटभलों नरकासुरसों पल में मधुसों मुरसों जिन मारयो।
लोक चतुर्दश केशव रक्षक पूरण वेद पुरान विचारयो।
श्री कमला कुच कुंकुम मंडित पंडित देव अदेव निहारयो।
सो कर माँगन को बलि पै करतारहु ने करतार पसारयो॥

जौं हौं कहौं रहिये तो प्रभुता प्रकट होत चलन कहौं तौ
हित हानि नाहीं सहनो। भावै सो करहु, तौ उदास भाव
प्राणनाथ साथ लै चलहु कैसे लोक लाज बहनो॥ केशो-
दास की सों तुम सुनहु छबीले लाल चलेही बनत जो पै
नाहीं राज रहनो। जैसियै सिखाओ सीख तुमहीं सुजान प्रिय-
तुमहीं चलत मोहिं जैसो कछु कहनो॥

१०

धिक मंगन बिन गुणहिं गुण सु धिक सुनत न रीझिय।
रीझ सु धिक बिन मौज मौज धिक देत सु कीजिये॥