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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२३०

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केशवदास
१७५
 

१५

भूत की मिठाई कैसी साधु की झुठाई जैसी स्यार की
ढिठाई ऐसी छीरा छहू ऋतु है। धीरा कैसो हास केसोदास
दासी कैसो सुख सूर की सी सङ्क अङ्क रङ्क कैसो वितु है॥
सुम कैसो दान महामूढ़ कैसो ज्ञान गौरी गौरा कैसा मान
मेरे जान समुदितु है। कौने है सँवारी वृषभानु की कुमारी
यह तेरी कटि निपट कपट कैसो हितु है॥

१६

किधौ मुख कमल ये कमला की ज्योति होति किधौं चारु
मुख चन्द्र चन्द्रिका चुराई है। किधौं मृग लोचन मरीचिका
मरीचि कैधों रूप की रुचिर रुचि सुचि सों दुराई है॥ सौरभ
की सोभा की दसन घन दामिनी की केसव चतुर चित्त ही
की चतुराई है। पूरी गोरी भोरी तेरी थोरी थोरी हाँसी मेरी
मोहन की मोहिनी की गिरा की गुराई है॥

१७

वन में वृषभानु कुमारि मुरारि रमे रुचि सों रस रूप पिये।
कल कूजत पूजन काम कला विपरीत रची रति केलि हिये॥
मणि सोहन श्याम जराई जरी अति चौकी चलै चल चार हिये।
मखतूल के झूल झुलावत केशव भानु मनो शनि अङ्क लिये॥

१८

चंचल न हुजै नाथ अंचल न खैंचो हाथ, सोवै नेक सारि-
कऊ शुक तौ सुवायो जू। मन्द करो दीप द्युति चन्द
मुख देखियत, दौर के दुराय आऊँ द्वार तो दिखायो जू॥
मृगज मराल बाल बाहिरै बिड़ार देऊँ, भायो तुम्हैं केशव सु
मोहूँ मन भायो जू। छल के निवास ऐसे वचन विलास सुनि,
सौगुनो सुरत हूँ तैं श्याम सुख पायो जू॥