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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२२९

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कविता-कौमुदी
 

दीबो धिक बिन साँच साँच धिक धर्म न भावै।
धर्म सु धिक बिन दया दया धिक अरि कहँ आवै॥
अरि धिक चित्त न सालई, चित धिक जहूँ न उदार मति।
मति धिक केशव ज्ञान बिनु, ज्ञान सु धिक बिनु हरिभगति॥

११

पातक हानि पिता सँग हारिबो गर्व के शूलनि तें डरिये जू।
तालनि को बँधिबो बधरोर को नाथ के साथ चिता जरियेजू॥
पत्र फटैं ते कटे रिन केसव कैसहू तीरथ में मरियेजू।
नीकी लगै ससुरारि की गारि औ डाँड़ भलोजो गया भरिये जू॥

१२

पाप की सिद्धि सदा ऋण वृद्धि सुकीरति आपनी आप कहो की।
दुःख को दान जु सूतक न्हान जु दासी की संतति संतत फीकी॥
बेटी को भोजन भूषन राँड़ को केशव प्रीति सदा पर ती की।
युद्ध में लाज दया अरि को अरु ब्राह्मण जाति सों जीति न नोकी॥

१३

सोने की एक लता तुलसी बन क्यों बरनों सुनि बुद्धि सकै छ्वै।
केशवदास मनोज मनोहर ताहि फले फल श्रीफल से द्वै॥
फूलि सरोज रह्यो तिन ऊपर रूप निरूपन चित चले च्वै।
तापर एक सुवा शुभ तापर खेलत बालक खंजन के द्वै॥

१४

दुरिहै क्यों भूषण बसन दुति यौवन की देह हूँ की ज्योति
होति द्यौस ऐसी राति है। नाहक सुवास लागे ह्वै है कैसी
केशव सुभावती की वास भौंर भीर फारे खाति है॥ देखि
तेरी सूरति की मूरति बिसूरति हूं, लालनि के दूग देखिबे को
ललचाति है। चालि है क्यों बंद मुखी कुचन के भार भये
कचन के भार ही लचकि लङ्क जाति हैं॥