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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२३६

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पृथ्वीराज और चम्पादे
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तलवार लेकर युद्ध में भी विजय प्राप्त कर सकते थे। लड़कपन से ही वे प्रतापसिंह की वीरता, उदारता और स्वदेश-भक्ति पर मोहित होकर उन पर बड़ी श्रद्धा रखते थे। उनको विश्वास नहीं था, कि प्रतापसिंह ने अकबर को ऐसा पत्र लिखा होगा। अतएव स्वाभाविक निडरता से उन्होंने अकबर से कहा—"मैं प्रताप को भलीभाँति जानता हूँ। यह पत्र उनका नहीं है। और तो क्या, यदि आप अपना ताज भी दे दें तो भी तेजस्वी प्रताप आपके वश में नहीं होगे।" इसके पश्चात् उन्होंने अकबर की अनुमति से प्रतापसिंह को एक पत्र लिखा। पत्र कविता में था। उस कविता को अब भी कभी कभी राज पूत लोग बड़े आनंद से गाते हैं।

पत्र की मूल प्रति कहीं नहीं मिलती। उसके कुछ दोहे प्रसिद्ध हैं, उन्हें हम यहाँ उद्धत करते हैं—

धर बाँको दिन पाधरा मरद न मूकै माण।
घणों नरिन्दा घेरियो रहै गिरन्दाँ राण॥१॥

जिसकी भूमि अत्यंत विकट है, और दिन अनुकूल है। जो वीर अभिमान को नहीं छोड़ता, वह महाराणा बहुत राजाओं से घिरा हुआ पहाड़ी में निवास करता है।

पातल राण प्रवाड़ मल बाँकी घड़ा बिभाड़।
खूँदाड़ै कुण है खुराँ तो ऊभाँ मेवाड़॥२॥

हे विकट सेनाओं के विध्वंस करने वाले और युद्ध में मल्ल महाराणा प्रतापसिंह! तेरे खड़े रहते मेवाड़ को घोड़ों के खुरों से खुँदाने वाला कौन है?

माई एहा पूत जण जेहा राण प्रताप।
अकबर सूतो ओधकै जाण सिराणै साँप॥३॥