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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२३९

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कविता-कौमुदी
 


हे दीवान! मैं अपनी मूँछ पर हाथ फेरुँ, या अपने शरीर को तलवार से काट डालूँ, इन दोनों में से एक बात लिख दीजिए।

राठौर-वीर पृथ्वीराज की कविता पढ़ कर प्रताप को इतना साहस हुआ कि मानों उन्हें दश हजार राजपूतों की सहायता मिल गई। वे अपनी प्रतिशा[] पर दृढ़ हुए। पत्र के उत्तर में महाराणा प्रताप ने नीचे लिखे दोहे भेजे थे:—

तुरुक कहासी मुख पतो इण तनसूँ इकलिंग।
ऊगै जाहीं ऊगसी प्राची बीच पतंग॥१॥

भगवान् एकलिंग की शपथ है, इस शरीर से अर्थात् प्रताप के मुख से बादशाह तुरुक ही कहलावेगा। और सूर्य का उदय जहाँ से होता है वहीं पूर्व ही में होगा।

खुसी हूँत पीथल कमध पटको मूछौँ पाण।
पछटण है जेतै पतो कमला सिर केवाण॥२॥

हे वीर पृथ्वीराज, आप प्रसन्न होकर मूछों पर हाथ फेरिये। जब तक प्रतापसिंह है, तलवार को यवनों के सिर पर ही जानियै।

साँग मूँड़ सहसी सको सम जस जहर सवाद।
भड़ पीथल जीतो भलाँ बैण तुरक सूँ बाद॥३॥


  1. प्रतापसिंह की प्रतिज्ञा यह थी कि वे कभी किसी यवन को सिर न झुकावेंगे। एक बार एक भाट अकबर के सामने मुजरा करने गया। सामने पहुँच कर उसने पगड़ी उतार ली। उसको नंगे सिर देख कर अकबर ने कारण पूछा, तब उसने कहा—यह पगड़ी महाराणा प्रतापसिंहजी ने अपने हाथ से दी है। मैं इसे आप के सामने झुकाना नहीं चाहता। यह सुन कर अकबर ने प्रतापसिंह की बड़ी प्रशंसा की।