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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२४८

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हरिनाथ
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बलि बोई कीरति लता कर्ण करी द्वैपात।
सींची मान महीपने जब देखी कुम्हिलात॥१॥
जाति जाति ते गुन अधिक सुन्यो न कबहूँ कान।
सेतु बाँधि रघुबर तरे हेला दे ग्रुप मान॥२॥

जब रुपया लेकर हरिनाथ दरबार से घर की ओर चले, मार्ग में एक ब्राह्मण मिला। उसने यह दोहा कहा—

दान पाय दोई बढ़े की हरि की हरिनाथ।
उन बढ़ि ऊँचे पग किये इन बढ़ि ऊँचे हाथ॥

इस दोहे से प्रसन्न हो हरिनाथ ने सब धन धान्य जो कुछ पाया था, उस ब्राह्मण को दे दिया। और आप खाली हाथ घर चले गये। एक बार हरिनाथ बाँधव गढ़ के बघेला रामचन्द्र के दरवार में गये। वहाँ राजा से दान सम्मान पाकर उन्होने अपनी विपत्ति को संबोधन करके यह सवैया पढ़ा—

आजलौं तासों औ मोसों बिपत्ति बढ़ी रही प्रीति की राति सहेली।
तो हित झार पहार मझाय कै आयके देखी हैं भूमि बघेली।
श्री हरिनाथ सो मान करै मति मेरी कही यह मानिलै हेली।
भेंटत हौं राजा राम नरेसहिँ भेंटि लें री फिर भेंट दुहेली॥

इस सवैया से प्रसन्न होकर राजा ने हरिनाथ को एक लाख रुपया पुरस्कार दिया।

अब जरा हरिनाथ के चिड़ी खानेका वर्णन सुनिये—

बाजपेयी बाज सम पाँड़े पच्छिराज सम,
हंस से त्रिवेदी और सोहैं बड़े गाथ के।
कुही सम सुकुल मयूर से तिवारी भारी,
जुर्रा सम मिसिर नवैया नहीं माथ के।

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