नीलकंठ दीक्षित अवस्थी हैं चकोर चारु,
चक्रवाक दुबे गुरु सुख शुभ साथ के।
येते द्विज जाने रङ्ग रङ्ग के मैं आने,
देस देस में बखाने चिरीखाने हरिनाथ के॥
प्रवीणराय
प्रवीणराय वेश्या थी। यह ओड़छा के महाराज इन्द्रजीतसिंह के यहाँ रहती थी। केशवदास जी ने इसी के लिये "कवि-प्रिया" बनाई। यह उनकी शिष्या थी।
यह बड़ी सुन्दरी थी। वेश्या होने पर भी अपने को पतिव्रता समझती थी। पढ़ी लिखी थी। कविता भी अच्छी करती थी। इसके गुणों की प्रशंसा सुन कर अकबर बादशाह ने इसे बुला भेजा। तब इसने इन्द्रजीतसिंह के पास जाकर यह सवैया कहा—
आई हौं बूझन मंत्र तुम्हें निज स्वासनसों सिगरी मति गोई।
देह तजौं की तजौं कुलकानि हिये न लजौं लजिहैं सब कोई॥
स्वारथ और परमारथ को पथ चित्त विचारि कहाँ तुम सोई।
जामें रहे प्रभु की प्रभुता अरु मोर पतिव्रत भंग न होई॥
इन्द्रजीतसिंह ने प्रवीणराय को अकबर के पास नहीं जाने दिया। इससे रुष्ट होकर अकबर ने इन्द्रजीतसिंह पर एक करोड़ का जुरमाना कर दिया और प्रवीणराय को ज़बरदस्ती बुला भेजा। तब प्रवीणराय अकबर के दरबार में गई। वहाँ उसने अकबर से इस प्रकार प्रार्थना की—
विनती राय प्रवीन की सुनिये शाह सुजान।
जूठी पतरी भखत हैं बारी बायस स्वान॥