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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२५२

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मलूकदास
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दर्द दिवाने बावरे अलमस्त फकीरा।
एक अकीदा है रहे ऐसे मन धीरा॥
प्रेम पियाला पीवते बिसरे सब साथी।
आठ पहर यों झूमते ज्यौं माता हाथी
उनकी नजर न आवते कोइ राजा रंका
बंधन तोड़े मोह के फिरते निहसंका॥
साहब मिल साहब भये कछु रही न तमाई।
कह मलूक तिस घर गये जहँ पवन न जाई॥१॥

दीनदयाल सुनी जब तेँ तब तें हिय में कछु ऐसी बसी है
तेरो कहाय के जाउँ कहाँ मैं तेरे हित की पट खैंच कसी है॥
तेरोइ एक भरोस मलूक को तेरे समान न दूजो जसी है।
एहो मुरारि पुकारि कहौं अब मेरी हँसी नहि तेरी हँसी हैं॥२॥

भील कब करी थी भलाई जिय आप जान फील कब
हुआ था मुरीद कहु किसका?। गीध कब ज्ञान की किताब का
किनारा छुआ व्याध और बधिक निसाफ कहु तिसका?। नाग
कब माला लैके बंदगी करी थी बैठ मुझको भी लगा था अजा-
मिलका हिसका। एते बदराहों की बदी करी थी माफ जन
मलूक अजाती पर एती करी रिस का?॥३॥

जहाँ जहाँ बच्छा फिरै तहाँ तहाँ फिरै गाय।
कहें मलूक जहँ संतजन तहाँ रमैया जाय॥४॥
अजगर करै न चाकरी पंछी करें न काम।
दास मलूका यों कहै सब के दाता राम॥५॥
गर्व भुलाने देह के रचि रचि बाँधे पाग‌।
सो देही नित देखि के चोंच सँवारे काग॥६॥