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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२५४

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सेनापति
१९९
 

उचित सेनापति ह्वै सुचित रघु पति गुन गाइये। चारि बर
दानि तजि पाय कमलेच्छम के पायक मलेच्छन के काहे को
कहाइये॥१॥

महा मोह कंदनि मैं जगत जकंदनि में दिन दुःख दंदनि
में जात है विंहाय कै। सुख को न लेस है कलेस सब भाँतिन
को सेनापति याही तें कहत अकुलाय कै। आवै मन ऐसी
घरबार परिचार तजौ डारौं लोक लाज के समाज बिसराय
कै। हरि जन पुजनि मैं वृन्दावन कुंजनि मैं रहौं बैठि कहुँ
तरवर तर जाय कै॥२॥

पान चरनामृत को गान गुन गानन को हरि कथा सुने
सदा हिये को हुलसियो। प्रभु के उतीरन की गुदरी औ
चौरन की भाल भुज कंठ उर छापन को लसिबो। सेनापत्ति
बाहत है सकल जनम भरि वृन्दाबन सीमा तें न बाहर निक
सिबो। राधा मन रंजन की सोभा नैन कंजन की माल गरे
गुंजन की कुंजन को बसिबो॥३॥

धातु सिलदारु निरधारु प्रतिमा को सार सो न करतार
है विचार बीच गेह रे॥ राखि दीठि अंतर जहाँ न कुछ अंतर
है जीभ को निरंतर जपावत हरे हरे॥ अंजन विमल सेनापति
मन रंजन दै जपि के निरंजन परम पद लेहरे। करि न संदेह
रे वही है मन देहरे कहा है बीच देहरे कहा है बीच देहरे॥४॥

नाहीं नाहीं करै थोरे माँगे सब देन कहै मंगन को देखि
पट देत बार बार है। जिनके लखत भली प्रापति की घरी होत
सदा सब जन मन भाय निरधार है। भोगी ह्वै रहत बिलसत
अवनी के मध्य कन कन जोरे दान पाट परिवार है। सेना-
पति बचन की रचना बिचारि देखो दाता और सूम दोऊ
कीन्हे एक सार है॥५॥