बिहारीलाल
कविवर बिहारीलाल ककोर कुल के चौबे ब्राह्मण थे। इनका जन्म अनुमान से सं॰ १६६० में ग्वालियर के निकट बसुआ गोविन्द पुर में हुआ। ऐसा अनुमान किया जाता है कि सं॰ १७२० में इनकी मृत्यु हुई।
बिहारीलाल जयपुर के महाराज जयसिंह के यहाँ रहा करते थे। एकबार जयसिंह अपनी छोटी रानी के प्रेम में इतने अनुरक्त हो गये कि उन्होंने बाहर निकलना ही बन्द कर दिया। इससे दरबारियों में बड़ी व्याकुलता फैली। तब बिहारीलाल ने यह दोहा लिखकर किसी तरह महाराज के पास भिजवाया:—
नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल।
अली कली ही में विंध्यो आगे कवन हवाल॥
दोहे का गूढ़ अभिप्राय समझ कर महाराजा बाहर चले आये। उस दिन से दरबार में बिहारीलाल का सम्मान बढ़ चला। इनको एक अशर्फी प्रतिदिन मिला करती थी। जयपुर में ही इन्होंने 'सतसई' बनाई, जो अपने ढंगकी एक ही पुस्तक है। शृंगार रस का ऐसा मनोहर ग्रंथ अभी तक हिन्दी साहित्य में दूसरा नहीं है। इसकी लगभग तीस टीकाएँ हो चुकी हैं। इतने पर भी रसिकों की तृप्ति नहीं हुई है। अब इसकी एक और टीका पंडित पद्मसिंह शर्मा की लिखी हुई प्रकाशित हुई है। यह टीका सब टीकाओं से उत्तम है। कहा नहीं जा सकता कि शर्मा जी की इस टीका से रसिकों की प्यास बुझेगी या बढ़ेगी।