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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२७१

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कविता-कौमुदी
 

मैं बरजी के बार तू उत कत लेत करोंट।
पैखुरी लगे गुलाब की परिहैं गात खरोंट॥३७॥
गोरी गढ़कारी परत हँसत कपोलन गाड़।
कैसी लसत गँवारि यह सुनकिरवा की आड़॥३८॥
फिर घर को नूतन पथिक चले चकित चित भागि।
फूल्यो देखि पलास बन समुहै समुझि दवागि॥३९॥
कहलाने एकत रहत अहि मयूर मृग बाघ।
जगत तपोवनसीं कियो दीरध दाघ निदाघ॥४०॥
प्यासे दुपहर जेठ के थके सबै जल सोधि।
मरुधर पाय मतीरहू मारू कहत पयोधि॥४१॥
बिखम वृखादित की तृखा जियत मतीरनि सोधि।
अमित अपार अगाध जल मारौ मूंड़ पयोधि॥४२॥
पावस घन अंधियार में रहो भेद नहिं आन।
राति दिवस जान्यो परे लखि चकई चकवान॥४३॥
अरुन सरोरुह कर चरन दूग खंजन मुखचंद।
समय आय सुन्दर शरद काहि न करत अनंद॥४४॥
जेती सम्पति कृपन की तेती तू मति जोर।
बढ़त जाय ज्यौं ज्यौं उरज त्यों त्यों हियो कठोर॥४५॥
कोटि यतन कोऊ करै परै न प्रकृतिहि बीच।
नल बल जल ऊँचो चढ़ै अन्त नीच को नीच॥४६॥
तन्त्री नाद कवित्त रस सरस राग रति रंग।
अनबूड़े बूड़े तरै जे बूड़े सब अंग॥४७॥
कैसे छोटे नरन तें सरत बड़नि के काम।
मढ़ो दमामो जात है कहिं चूहे के चाम॥४८॥
अति अगाध अति ऊधरो नदी कूप सर बाय।
सो ताको सागर जहाँ आकी प्यास बुझाय॥४९॥