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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२७२

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बिहारीलाल
२१७
 

मीत न नीति गलीत ह्वै जो धरिये धन जोरि।
खाये खरचे जो बचै तौ जोरियै करोरि॥५०॥
दुसह दुराज प्रजान में क्यों न करै दुःख द्वद।
अधिक अँधेरों जग करत मिलि मावस रवि चंद॥५१॥
घर घर डोलत दीन ह्वै जन जन याचत जाय।
दिये लोभ बसमा चखनि लघु पुनि बड़ो लखाय॥५२॥
बसै बुराई जासु मन ताही को सन्मान।
भलो भलो कहि छाँड़िये खोटे ग्रह अपदान॥५३॥
कहैं यहै श्रुति स्मृतिहूँ सबै सयाने लोग।
तीन दबावत निकट ही राजा पातक रोग॥५४॥
इक भीजे चहले परे बूड़े बहे हजार।
कितने अधगुण जग करत नै वै चढ़ती बार॥५५॥
बुरी बुराई जो तजै तौ मन खरो सकात।
ज्यों निकलंक मयंक लखि गनैं लोग उतपात॥५६॥
सीतलताऽरु सुगंध की महिमा घटी न मूर।
पीनसवारे जो तज्यो सोरा जानि कपूर॥५७॥
बढ़त बढ़त संपति सलिल मन सरोज बढ़ि जाइ।
घटत घटत पुनि ना घटै बरु समूल कुम्हिलाइ॥५८॥
संगति सुमति न पावई परे कुमति के धंध।
राखो मेलि कपूर में हीँग न होय सुगंध॥५९॥
सबै हँसत करतार दै नागरता के नाँव।
गयो गरब गुन को सबै बसे गमेले गाँव॥६०॥
को कहि सकै बड़ेनसों लखे बड़ीयो भूल।
दीने दई गुलाब की इन डारन ये फूल॥६१॥
चले जाहु ह्याँ को करै हाथिन को व्योपार।
नहि जानत यहि पुर बसै धोबी औंड़ कुम्हार॥६२॥