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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२७३

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कविता-कौमुदी
 

नर की अरु नल भीर की एकै गति करि जोय।
जैतो नीचो ह्वै चलै तेतो ऊँचों होय॥६३॥
गिरितें ऊँचे रसिक मन बूड़े जहाँ हजार।
वहै सदा पसु नरन को प्रेम पयोधि पगार॥६४॥
जिन दिन देखे वे कुसुम गई सो बीति बहार।
अब अलि रही गुलाब में अपत कटोली डार॥६५॥
इहि आशा अटक्यो रहे अलि गुलाब के मूल।
हुर हैं बहुरि बसन्त ऋतु इन डारन वे फूल॥६६॥
पट पाँखें भख काँकरें सदा परई संग।
सुखी परेवा जगत में एकै तुही विहंग॥६७॥
मरत प्यास पिंजरा परयो सुआ समय के फेर।
आदर दै दै बोलियतु चायस बलि की बेर॥६८॥
नहिं पावस ऋतु राज यह तज तरुवर मति भूल।
अपत भये बिन पार है क्यों नव दल फल फूल॥६९॥
वे न यहाँ नागर बड़े जिन आदर तौ आब।
फूल्यो अनफूल्यो भयो गँवई गाँव गुलाब॥७०॥
कर ले सूँघि सराहि कै रहै सबै गहि मौन।
गंधी गंध गुलाब को गँवईं गाहक कौन॥७१॥
करि फुलेल को आचमन मीठो कहत सराहि।
चुप करि रे गंधी चतुर अतर दिखावत काहि॥७२॥
कनक कनक तें सौगुनी मादकता अधिकाय।
वहि खाये बौराय जग यहि पाये बौराया॥७३॥
बड़े न हुजैं गुनन बिन बिरद बड़ाई पाय।
कहत धतूरे सों कनक गहनो गढ़ो न जाय॥७४॥
कन देव्यो सौंप्यो ससुर बहू थुरहती जानि।
रूप रहिचढ़े लखि लग्यो माँगन सब आनि॥७२॥