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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२९०

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मतिराम
२३५
 

गुञ्जनि के उर मंजुल हार निकुंजनि ते कढ़ि बाहिर आयो।
आजको रूप लखे ब्रजराजको आजही आँखिनको फल पायो॥२२॥
कुन्दन को रँग फीको लगै झलकै असि अंगनि चारु गोराई।
आँखिन में अलसानि चितौनि में मंजु विलासन की सरसाई॥
कोटिन मोल बिकात नहीं मतिराम लहै मुसुकान मिठाई।
ज्यों ज्यों निहारिये नेरे ह्वै नेननि त्योँ त्योँ खरी निकरैं सुनिकाई॥२३॥
खेलन चोर मिहीचनी आजु गई हुती पाछिले घोस की नाई।
आली कहा कहौं एक भई मतिराम नई यह बात तहाँई॥
एकहि भौन दुरे इक संगही अंगसोँ अंग छुवायो कन्हाई।
कम्प छुट्यो तन स्वेद बढ्यो तनुरोम उठ्यो अखियाँ भरि आई॥२४॥
केलि की राति अघाने नहीं दिनही में लला पुनि घात लगाई।
प्यास लगी कोउ पानी दे जाइयो भीतर बैठि के बात सुनाई॥
जेठि पठाई गई दुलही हँसी हरे हरैं मतिराम बुलाई।
कान्ह के बोल में कान न दीन्हीं सु गेह की देहरि पै धरि आई॥२५॥
आपने हाथ सों देत महावर आपुहि बार शृंगारत नीके।
आपनहीं पहिरावत आनि कै हार संवारि कै मौलसिरी के॥
हौं सखि लाजन जात गड़ी मतिराम स्वभाव कहा कहौं पीके।
लोग मिलें घर घेरे कहैं अबहींते ये चेरे भये दुलहीके॥२६॥
प्यार पगी पगरी पियकी बसि भीतर आपने सीस सँवारी।
एते में आँगनते उठिकै तहँ आइ गये मतिराम बिहारा॥
देखि उतारनि लागि पिया पिय सौंहनि सों बहुरो न उतारी।
नैन नचाइ लजाइ रही मुसुकाइ लला उर लाइ पियारी॥२७॥
पियत रहै अधरानि को रस अति मधुर अमोल।
तातें मीठो कढ़त है बाल बदन तें बोल॥२८॥
नैन जोरि मुख मोरि हँसि नैसुक नेह जनाइ।
आग लेन आई हिये मेरे गई लगाय॥२९॥