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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२८९

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कविता-कौमुदी
 

बाजत नगारे जहाँ गाजत गयन्द, तहाँ सिंह सम कीनो
बीर संगर बिहार है। कहै मतिराम कवि लोगनि कौं रीझि
करि, दीने ते दुरद जे चुवत म‌द्वाधार हैं॥ शत्रुसाल नन्द राव
भावसिंह तेग त्याग, तोसे और औनि तल आजु न उदार हैं।
हाथिन विदारिबे कों हाथ हैं हथ्यार तेरे, दारिद बिदारिवे
को हाथियै हथ्यार हैं॥१८॥

चरन धरै न भूमि बिहरै तहाई जहाँ, फूले फूले फूलन
बिछायो परजंक है। भार के डरनि सुकुमारि चारु अंगनि
मैं, करत न अंगराग कुंकुम को पंक है॥ कहै मतिराम देखि
बातायन बीच आयो, आतप मलोन होत बदन मयंक है। कैसे
वह बाल लाल बाहर बिजन आवै, बिजन-बयार लागे लचकत
लङ्क है॥१६॥

जूथपति बैठ्यौ पानी पोषत प्रबलमद कलभ करेनु कनि
लीन संग सुखतें। ग्रह गह्यौ गाढ़े बैर पोछले के बाढ़े भयो
बलहीन विकल करन दीह दुखतें॥ कहै मतिराम सुमिरत ही
समीप लखे ऐसी करतूति भई साहिब सुरुख तें। दोऊ बातैं
छूटी गजराज की बराबर ही पाँव ग्राह मुख ते पुकार निज
मुखतें॥२०॥

सोने कैसी बेली अति सुन्दर नवेली बाल, ठाढ़ी ही अकेली
अलबेली द्वार महियाँ। मतिराम अँखियाँ सुधा की वरपाली
भईं, गई जब दीठि वाके मुखचन्द पहियाँ॥ नेक नीरे जाइ
करि बातनि लगाइ करि, कछू मन पाइहरि बाकी गही बहियाँ।
सैननि चरचि लई गौननि थकित भई, नैननि में चाह करै
बैननि में नहियाँ॥२१॥

गुच्छनि के अवतंस लसै सिखिपच्छानि अच्छ किरीट बनायो।
पल्लव लाल समेत छरी कर पल्लव में मतिराम सुहायो॥