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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२९६

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बेनी
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बोले बात थिरकी॥ देखि देखि कागद तबीअत सुमादी भई
सादी काह भई बरवादी भई घरकी॥२॥

सेर चार चाउर पसेरिक पिसान माँज्यो तापै खरे डाटें
कोऊ साने बड़ी धानी ना। बहू को बुलाय मसलहत सिखाय
कान पैठ जा रसोई कोऊ परसे बेगानी ना। बेनी कवि कहै
कहा आये आज याके यहाँ देखि सुनि परे कहूँ अन्न की
निसानी ना। कीनी मेहमानी जुरयो पान औ न पानी बकै
आपै बड़ो दानी कोऊ जानी कोऊ जानी ना॥३॥

हाव भाव विविध दिखाये भली भाँतिन सों मिलत न
रति दान जागे संग जामिनी। सुबरन भूषन सँवारे ते बिफल
होत जाहिर किये ते हँसे नर गज गामिनी। रहे मन मारे
लाज लागत उघारे बात मन पछतात न कहते कहूँ भामिनी।
बेनी कवि कहै बड़े पापन ते होत दोऊ सुमको सुकवि औ
नपुंसक को कामिनी॥४॥

संभु नैन जाल औ फनी को फूतकार कहा जाके आगे
महाकाल दौरत हरौलीतें॥ सातो चिरंजीवी पुनि मारकडे
लोमस लों देख कम्पमान होत खोलें जब झोलीतें। गरल
अनल औ प्रलै को दावानल भल बेनी कवि छेदि लेत गिरत
हथोलीतें। बचन न पावें धनवन्तरि जो आवें हर गोविन्द
बचावैं हरगोविंद की गोली तें॥५॥

बार बार लीखें लगीं लाखन जुआ के जोट आँखिन बरौ-
निन में कीचर छपानी है। कानन कनोई नाक चपटी चुवत रैंट
कारे कारे दंतन में कीट लपटानी है। मूड़ पै मकर जारी दौलत
अँधारी लगै ओढ़े मेलवारो फटो बसन पुरानो है। बोलत ही
थूक के फुहारे चलें फूहरि के पाद पाद पीसत पिसान हू
उड़ानी है॥६॥

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