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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२९७

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कविता-कौमुदी
 

गड़ जात बाजी औ गयन्द गन अड़ि जात सुतुर अकड़ि
जात मुसकिल गऊ की। दावन उठाय पाय धोखे जो धरत होत
आप गरकाप रहिजात पाग भऊ की। बेनी कवि कहै देखि थर
थर काँपे गात रथन के पथ ना विपद बरदऊ की। बार बार
कहत पुकार करतार तोसों मीच है कबूल पै न कीच लखनऊ
की॥७॥

चूक सो लगत चाखे लूक सो लगावै कंट ताप सरसावै है।
अपूरब अराम के। रस को न लेस चोपी रेसा है बिसेस छाँड़ि
दीन्हे सब देस पकसाने परे धाम के। बुरे बदसूरत बिलाने
बदबोयदार बेनी कहै बकला बनाये मानो चाम के। कौड़ी के
न काम के सु आये विनदाम के हैं निपट निकाम हैं ये आम
दयाराम के॥८॥

चींटी को चलावै को मसा के मुख आये जाये साँस की
पवन लागे कोसन भगत हैं। ऐनक लगाय मरू मरू कै निहारे
परै अनु परमानु की समानता खगत हैं। बेनी कवि कहै हाल
कहाँ लौ बखान करौं मेरी जान ब्रह्म को बिचारिबो सुगत है।
ऐसे आम दीन्हे दयाराम मन मोद करि जाके आगे सरसौ
सुमेरु सी लगत है॥९॥

बियत बिलोकत ही मुनि मन डोलि उठे बोलि उठे बर-
ही बिनोद भरे बन बन। अकल विकल है बिकाने से पथिक
जन ऊर्द्ध मुख चातक अधोमुख मराल गन। बेनी कवि कहत
मही के महाभाग भये सुखद सँयोगिन बियोगिन के ताप
तन। कंज पुंज गंजन कृषी दल के रंजन सो आये मान भंजन
ये अंजन बरन घन॥१०॥

करि की चुराई चाल सिंह को चुरायो लङ्क शशि को
चुरायो मुख नासा चोरी कीर की। पिक को चुरायो बैन मृग