सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
बेनी
२४३
 

को चुरायो नैन दसन अनार हाँसी बीजरी गम्भीर की। कहै
कषि बेनी बेनी ब्याल की चुराइ लीनी रती रती शोभा सब
रति के शरीर की। अब तौ कन्हेँया जू को चितहू चुराइ
लीन्ही छोरटी है गोरटी या चोरटी अहीर की॥११॥

ऊंची चाली चिक्क मिसी दाँतन में बातन में बार बार
हेरि हेरि मन मुसुकाने हैं। मुख के न दरस परस भरदूमिन के
लै रहैं मुकुर औ अतर अंग साने हैं। बेनी कधि कहै आहि ऊहि
में प्रवीन बड़े निपट निकाम कहूँ काहू के न माने हैं। अजस के
खाने जिन्हें कवि न बखाने जिन ऐसे धरे बाने ते जनाने सम
जाने हैं॥१२॥

पृथु नल जनक जजाति मानधाता ऐसे केते भये भूष यश
छिति पर छाइगे। काल चक परे सक सैकरन होत जात कहाँ
लौंगनावों विधि बासर बिताइगे। बेनी साज सम्पति समाज
साज सेना कहाँ पायन पसारि हाथ खोले मुख बाइगे। छुद्र
छितिपालन की गिनती गिनावै कौन रावन से बली नेऊ
बुल्ला से बिलाइगे॥१३॥

बेद मत सोधि सोधि देखि कै पुरान सबै संतन असंतन
को भेद को बतावतो। कपटी कपूत कूर कलि के कुचाली
लोग कौन रामनामहू की चरचा चलावतो। बेनी कवि कहै
मानो मानो रे प्रमान यही पाहन से हिये कौन प्रेम उमगावतो।
भारी भवसागर में कैसे जीव होते पार जो पै रामायण ना
तुलसी बनावतो॥१४॥

बदन सुधाकरै उघारत सुधाकरै प्रकास वसुधा करै सुधा-
करै मुवा करें। चरन घरा धरै मृणालऊ धराधरै सु ऐसे
अधराधरै ये बिम्ब अधराधरै॥ बेनी दूग हा करै निहारत
कहा करै सु बेनी कविता करै त्रिवेनी समता करै। सुरत में