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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/३१६

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देव
२६१
 

मैं सौति के सराप तन तायनि तरफराति। देव कहै स्वासन
ही अंसुवा सुखात मुख निकसे न बात ऐसी सिसकी सरफ
राति। लोटि लोटि परत करोट पट पाटी लै लै सूखे जल
सफरी ज्यों सेज पै फरफराति॥१२॥

देव जू जो चित चाहिये नाह तौ नेहनिबाहिये देह हरयोपरै।
जौ समझाइ सुझाइये राह अमारग मैं पग धोखे धरयो परै॥
नीके मैं फीके ह्वै आँसू भरो कत ऊँचे उसाँ सगरोक्योंभरयोपरै।
रावरो रूप पियो अँखियानि भरयोसोभरयोउबरयोसोढरयोपरै?॥३॥
चोट लगी इन नैनन की दिनहुँ इन खोरिन सों कढ़ती हौ।
देखन में मन मोहि लियो छिपि ओट झरोखन के झँकती हौ॥
"देव" कहै तुम हौ कपटी तिरछीअँखियाँ करि कैतकती हौ।
जातिपरै न कछू मन की मिलिहौ कबहुँ कि हमैं ठगती हौ॥१४॥
भेस भये विष भाषते भूखन भूख न भोजन की कछु ईछी।
भीचु की साध न सोंधे की साध न दूध सुधा दधि माखन छीछी॥
चंदन तौ चितयो नाहे जात चुभी चित माहिँ चितौनि तिरीछी।
फूलज्योंसूल सिलासमसेज बिछौन निबीच बिछीजनु बीछी॥१५॥
जाके न नाम न क्रोध विरोध न लाभ छुवै नहि छोभ को छाहौ।
मोह न जाहि रहै नग बाहिर मोल जवाहिर ता अति चाहौं।
बानी पुनीत त्यों देवधुनी रस आरद सारद के गुन गाहौं।
सीलससीसविताछविता कविता हिरचै कविताहि सराहौं॥१६॥
कंचन बेलि सी नौल बधू जमुना जल केलि सहेलिनिआनी।
रोमवली नवली कहि देव सु गोरे से गात नहात सुहानी॥
कान्ह अचानक बोलि उठे उर बाल के ब्याल बधू लपटानी॥
धाइ कै धाइ गही ससबाइ दुहूँ कर झारति अँग अयानी॥१७॥
बारे बड़े उमड़े सब जैबे को तौन तुम्हें पठवो बलिहारी।
मेरे तेा जीवन देव यही धनु या ब्रज पाई में भीख तिहारों।