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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/३१७

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कविता-कौमुदी
 

जानै न रीति अधाइनि की नित गाइनि, मैं। बन भूमि निहारी।
याहि कोऊ पहिचानै कहा कछु जानै कहा मेरोकुञ्ज बिहारी॥१८॥


 

बैताल

बैताल कवि का जन्म सं॰ १७३४ में हुआ। ये विक्रमशाह के दरबार में रहते थे। इन्होंने अपने छन्द प्रायः विक्रम को सम्बोधन करके बनाये हैं। ये नीति विषयक बड़ी अच्छी कविता करते थे। इनका रचा हुआ कोई ग्रन्थ नहीं मिलता। केवल थोड़े से स्फुट छन्द मिलते हैं; उनमें से कुछ छन्दों को हम नीचे प्रकाशित करते हैं:—

जीभि जोग अरु भोग जीभि बहु रोग बढ़ावै।
जीभि करै उद्योग जीभि लै कैद करावै॥
जीभि स्वर्ग लै जाय जीभि सब नरक दिखावै।
जीभि मिलावै राम जीभि सब देह धरावै॥
निज जीभि ओठ एकग्र करि बाँट सहारे तोलिये।
बैताल कहै विक्रम सुनो जीभि सँभारे बोलिये॥१॥
टका करै कुल हूल टका मिरदङ्ग बजावै।
टका चढ़े सुखपाल टका सिर छत्र धरावै॥
टका माय अरु बाप टका भैयन को भैया।
टका सास अरु ससुर टका सिर लाड़ लड़ैया॥
अब एक टके बिनु टकटका रहत लगाये रात दिन।
बैताल कहै विक्रमसुनो धिक जीवन एक टकेबिन॥२॥
मरै बैल गरियार मरै वह अड़ियल टट्टू।
मरै करकसा नारि मरै वह खसम निखटट्टू।